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आचार्य राजशेखर के अनुसार पूर्व परम्परा से ही कवि दूसरों के अर्थ भी ग्रहण करते थे। किन्तु अर्थग्रहण का अपना स्तर भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है कुछ उच्च तथा कुछ निम्न कोटि का। इस अर्थग्रहण या अर्थहरण के स्तर का सम्बन्ध विभिन्न कोटि के कवियों से है। उत्कृष्ट कवि तथा निम्न कोटि के कवि इस दृष्टि से विभाजित किए जा सकते हैं। दूसरों के प्रबन्धों का अनुशीलन प्रारम्भिक कवियों के लिए आवश्यक होता है तथा अभ्यस्त कवि के लिए भी लाभदायक । उनमें से जैसे प्रारम्भिक कवि अर्थग्रहण करते हैं उसी प्रकार उत्कृष्ट कवि भी अर्थग्रहण करते है जैसा कि आचार्य राजशेखर द्वारा विवेचित किए गए अर्थहरण के भेदों से स्पष्ट होता है। प्रारम्भिक कवियों से उत्कृष्ट कवियों का अन्तर यह है कि वे केवल सदृश अर्थ तथा मूल अर्थ ही ग्रहण करते हैं, वही अर्थ नहीं। अभ्यासी कवियों को
भी ऐसा ही करने का प्रयत्न करना चाहिए।
सम्भव है कि प्रारम्भिक अवस्था में नवीन अर्थ की उद्भावना कविमानस में न हो। उस
प्रारम्भिक अवस्था में ही दूसरों के अर्थहरण की आवश्यकता को स्वीकार किया जा सकता है। आचार्य
वाग्भट्ट तो दूसरों के अर्थ लेकर अभ्यास करने को प्रारम्भिक अवस्था में भी स्वीकार नहीं करते, 1
क्योंकि यदि अर्थ कवि को कहीं से मिल ही जाएंगे तो वे मौलिक अर्थ की उद्भावना का प्रयत्न क्यों
करेंगे, यही सम्भवतः उनकी मान्यता है। यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि जब कवि समर्थ हो जाते हैं
तो मौलिक अर्थों की उद्भावना उनके मानस में स्वयं होती है। मौलिक, नवीन अर्थों के उद्भावन का उन्हें प्रयत्न नहीं करना पड़ता। अर्थहरण को स्वीकार करने वाले आचार्य भी केवल प्रारम्भिक अवस्था
में ही अर्थहरण को स्वीकार करते हैं। हरण को स्वीकार करने वाले सभी आचार्यों का सम्बन्ध प्रारम्भिक
कवियों की शिक्षा से है।
1 परार्थबन्धाद्यश्च स्यादभ्यासो वाच्यसङ्गतौ
सन श्रेयान्यतोऽनेन कविर्भवति तस्करः। 121
प्रथम परिच्छेद (वाग्भटालङ्कार - वाग्भट्ट)