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________________ [204] परप्रबन्धानुशीलन की आवश्यकता किस दृष्टि से है इस विषय में विभिन्न आचार्यों के विभिन्न मत है। कुछ आचार्य इस विचार के पक्षपाती हैं कि इतने अधिक कवि हो चुके हैं और वे इतने अधिक विषयों पर काव्यरचना भी कर चुके हैं कि अब किसी अन्य नवीन विषय पर रचना कर सकना किसी भी कवि के लिए सम्भव नहीं है। ऐसी स्थिति में यदि काव्यरचना की इच्छा हो तो केवल उन्हीं प्राचीन कवियों द्वारा काव्य में निबद्ध किए गए अर्थों को लेकर ही केवल उन्हीं का संस्कार करते हुए काव्यरचना की जा सकती है। अतः नवीन अर्थ कभी काव्य में निबद्ध किया ही नहीं जा सकता। इसी कारण प्राचीन अर्थों को ही देखने के लिए पर प्रबन्धानुशीलन की आवश्यकता होती है। यह सम्भवतः आचार्य आनन्दवर्धन का ही विचार है, 'इति आचार्याः' कहकर आचार्य राजशेखर ने सम्भवतः अपने पूर्ववर्ती आचार्य आनन्दवर्धन का ही विचार प्रदर्शित किया है। बाल्मीकि, व्यास जैसे प्रतिभाशाली कवियों के कारण सभी अर्थों के पूर्ववर्णित होने का तथा केवल ध्वनि के स्पर्श से ही उनकी नवीनता का उनके संस्कार का प्रसंग ध्वन्यालोक में आया है। I सभी अर्थ पूर्ववर्णित ही हैं इस विचार को 'गौडवहो' के रचयिता वाक्पतिराज स्वीकार नहीं करते। उनकी दृष्टि में सरस्वती का भण्डार कभी खाली नहीं होता। नवीन विषयों का स्फुरण कविमानस में सदा ही होता रहता है वाक्पतिराज की मान्यता है कि दूसरों के प्रबन्धों का अनुशीलन प्रतिभा के उन्मेष के लिए आवश्यक है। उनके अर्थ लेकर उन्हीं का संस्कार सहित वर्णन करने के लिए नहीं। आनन्दवर्धन की दृष्टि में सभी अर्थ पहले वर्णित हो चुके हैं, किन्तु वाक्पतिराज के अनुसार इतने अर्थ वर्णित हो चुके हैं फिर भी कवियों के लिए अर्थ शेष नहीं हुए । यहाँ एक बात यह कही जा सकती है कि सामान्यतः प्रतिभा को कवियों के काव्य का कारण स्वीकार करने वाले सभी आचार्य प्रतिभासम्पन्न कवि के काव्य में अर्थ की नवीनता तथा मौलिकता को स्वीकार करते हैं। आनन्दवर्धन सभी अर्थों को पूर्ववर्णित मानकर भी उनके नवीन रूप के ही वर्णित होने की बात स्वीकार करते हैं क्योंकि काव्यात्मा ध्वनि के संसर्ग से काव्य बिल्कुल ही नवीन हो जाता है। ध्वनि के संसर्ग से वर्णित अर्थ पूर्ववर्णित अर्थ से बिल्कुल ही भिन्न तथा इसी कारण नवीन रूप में प्रतीत होता है। अतः पूर्ववर्णित अर्थ के उसी रूप का केवल किचित् संस्कार ही नहीं बल्कि पूर्ण संस्कार तथा पूर्ण परिवर्तन किया जाता है। इसलिए कवि के मानस में उसी अर्थ के नवीन रूप में स्फुरण को आचार्य आनन्दवर्धन भी स्वीकार करते ही हैं, और
SR No.010645
Book TitleAcharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Srivastav
PublisherIlahabad University
Publication Year1998
Total Pages339
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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