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किसी श्लोक के सम्पूर्ण वाक्यों का ग्रहण करके भी उनका किसी विशेष प्रकार से भिन्न रूप में
व्याख्यान करना भी स्वीकरण या हरण नहीं है। ऐसी स्थिति में किसी के शब्दों के ग्रहण का यह रूप भी
सम्भवतः कवित्व का ही स्थल है। आचार्य राजशेखर ने शब्दग्रहण के पदैक देशग्रहण रूप के तथा
श्लोक के अन्यथा व्याख्यान रूप के हरण अथवा स्वीकरण रूप होने का निषेध किया है। ऐसी स्थिति में इनके दो पक्ष हो सकते हैं या तो ये हरण अथवा स्वीकरण कुछ भी न होने से स्वीकार्य ही नहीं हैं अथवा फिर हरण भी न हो और स्वीकरण रूप भी न हों तो पूर्णतः औचित्यपूर्ण तथा कवि के कवित्व को प्रकट करने वाले कवित्व रूप हो सकते हैं। इन दो रूपों के दो विकल्प हो सकते हैं इनका औचित्य अथवा इनका अनौचित्य । किन्तु हरण के प्रसंग में हरण से सम्बद्ध कवित्व के स्थलों के विवेचन के साथ ही इनका भी विवेचन होने से इनको तृतीय विकल्प अर्थात् शब्दहरण के कवित्व रूप में ही स्वीकार किया जा सकता है और किञ्चित् ही परिवर्तन के द्वारा ही सही हरण के ये प्रकार भी पूर्व रचना के रूप
को तो परिवर्तित कर ही देते हैं। इसी कारण ये कवि के कवित्व के परिचायक हो सकते हैं और यदि ये
कवित्व के स्थल हैं तो स्वीकार्य भी हैं।
इस प्रकार किसी के भी शब्दों को लेकर उन्हें अपने ढंग से प्रस्तुत कर सकने के कवित्व रूप
वाले स्थल निम्न हैं
भिन्न अर्थों वाले पादों को अन्य स्थानों से लेकर एक पाद की स्वयं रचना करके उनमें उन पादों को मिलाना, केवल कुछ पदों के परिवर्तन से या केवल एक पद के एक अंश के परिवर्तन से कोई विशेष
अर्थ निकालना अथवा रचना के सभी वाक्यों का किसी प्रकार भिन्न रूप में व्याख्यान करना।
इस प्रकार ऐसा शब्दहरण जहाँ हरण करने वाले कवि की अपनी प्रतिभा का चमत्कार समाविष्ट हो, तथा पूर्व कवि की प्रतिभा का विशेष प्रकर्ष उन हरण किए गए स्थलों में न दिखाई देता हो ऐसे पद, पाद तथा अनेक पादों को भी दूसरों से अपनाया जा सकता है और ऐसी स्थिति में उन्हें हरण या स्वीकरण कुछ भी कहने की आवश्यकता नहीं होती। परवर्ती कवि की प्रतिभा के प्रभाव से हरण किए
गए स्थलों का भी विशेष महत्व हो जाता है और वे नवीन से प्रतीत होते हैं। राजशेखर की दृष्टि में
शब्दहरण केवल वहीं स्वीकृत है जहाँ न तो उसे हरण कहने की आवश्यकता हो न तो स्वीकरण, किन्तु
उनकी कुछ अपनी विशिष्ट ही नवीनता हो, अथवा जिन स्थलों पर उनमें नवीनता न हो वहाँ भी वे