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________________ [199] करना चाहिए। केवल पद का ही हरण उचित है अथवा केवल पाद का ही हरण उचित है इस प्रकार का कोई नियम नियन्त्रण शब्दहरण के सम्बन्ध में नहीं किया जा सकता। जिन शब्दों में पूर्व कवि ने चमत्कार सन्निहित न किया हो उन शब्दों को अपनाया जा सकता है, केवल एक पद या कई पदों के रूप में नहीं, बल्कि पूरे पाद के रूप में भी। कुछ आचार्यों का विचार श्लेषरहित तीन तक पदों का कहीं और से ग्रहण उचित होने से सम्बद्ध है। किन्तु आचार्य राजशेखर शब्दहरण में पदों की संख्या का महत्त्व नहीं मानते। पदों के हरण का औचित्य, अनौचित्य उनकी संख्या पर नहीं, किन्तु पूर्व कवि के काव्य में उनकी अपनी सामान्य तथा विशिष्ट स्थिति पर निर्भर करता है। इस बात पर निर्भर करता है कि उनमें पूर्व कवि की प्रतिभा का कितना व्यय हुआ है? केवल पद ही नहीं, पाद का भी अन्य कवि के काव्य से साम्य होना दोष नहीं है। वे स्वीकरणीय हो सकते हैं, किन्तु केवल उसी स्थिति में जब वे किसी पूर्व कवि के काव्य के केवल सामान्य पद हों। उनका किसी विशिष्ट उल्लेखनीय अर्थ से सम्बद्ध न होना, पूर्व कवि द्वारा विशेष प्रतिभा प्रकर्ष से निबद्ध न होना, साथ ही ज्ञात होना अर्थात् किसी प्रसिद्ध कवि के काव्य से सम्बद्ध होना ही उन्हें किसी परवर्ती कवि के काव्य में स्वीकरणीय बना सकते हैं 'उल्लेखवान् पदसन्दर्भः परिहरणीयो ना प्रत्यभिज्ञायातः पादोऽपि' काव्यमीमांसा में मुद्रित इस वाक्य के पाठ में 'अप्रत्यभिज्ञायातः' शब्द ही प्रतीत होता है जिसका यह तात्पर्य हो जाता है कि जिसका कर्ता तथा उद्भव स्थान पहचाना न जा सके उसी पद या पद का हरण उचित है। तब ऐसी स्थिति में तो ऐसे किसी भी पद या पद का ग्रहण किया जा सकेगा जो पहचाना न जा सके फिर चाहे वह उल्लेखनीय ही क्यों न हो। किसी कवि के अप्रसिद्ध होने आदि कारणों से भी उसके काव्य को अपनाना सम्भव हो जाएगा जिसके आचार्य राजशेखर स्वयं विरोधी हैं। इसलिए 'अप्रत्यभिज्ञायात:' के स्थान पर सम्भवतः 'प्रत्यभिज्ञायातः' पाठ ही उचित है। वाक्य के अन्त में प्रयुक्त 'भी' स्वीकृति के अर्थ में ही प्रयुक्त प्रतीत होता है, निषेध अर्थ में नहीं। इसलिए 'उल्लेखनीय पदसन्दर्भ भी हरणयोग्य नहीं है, किन्तु जिसे पहचाना जा सके ऐसा पाठ भी हरण योग्य है, वाक्य विन्यास के औचित्य पर तथा आचार्य के तात्पर्य पर ध्यान देने से यही अर्थ उचित प्रतीत होता है। अत: 'अप्रत्यभिज्ञायातः' शब्द को मुद्रण की भूल मानकर 'प्रत्यभिज्ञायात:' शब्द ही यहाँ स्वीकार किया जा सकता है।
SR No.010645
Book TitleAcharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Srivastav
PublisherIlahabad University
Publication Year1998
Total Pages339
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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