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________________ [197] हरण रूप में ही स्वीकार किए गए हैं तथा वे हरण जो हरण रूप होते हुए भी कवित्व रूप में ही स्वीकार किए गए हैं। यद्यपि कुछ आचार्यों ने कुछ प्रकारों को दूसरे का अंश मानकर ग्रहण रूप स्वीकरण कहा है किन्तु आचार्य राजशेखर की दृष्टि में वे भी हरण ही हैं।1 शब्द हरण के वे प्रकार जिन्हें आचार्य ने केवल हरण कहा है वे सम्भवतः उनकी दृष्टि में अधिक उपादेय नहीं हैं, उनका प्राय: अनौचित्य भी नहीं है, किन्तु केवल सामान्य से शब्दों के रूप में बिना किसी विशेष अभिप्राय के कहीं से साधारण रूप से ग्रहण कर लेने तक ही उन शब्द हरणों का औचित्य सीमित है। शब्दहरणों की अधिक उपादेयता तथा औचित्य केवल उन्हीं स्थलों पर है जहाँ वे कवि की शक्ति को सिद्ध करते हैं तथा हरण करने वाले कवि की प्रतिभा के अपने प्रकर्ष से सम्बद्ध होकर ग्रहण किए गए हैं। जो शब्द कहीं से लिए जाने पर भी हरणकर्ता कवि की काव्यशक्ति का संकेत देते हैं वे ही हरण रूप से ग्राह्य हैं। दूसरे कवि के शब्द ग्रहण करने पर भी उनका प्रतिभा द्वारा दूसरे ही रूप में दूसरे ही प्रकार से प्रयोग हरणकर्ता कवि का कवित्व प्रकट करता है। ऐसे शब्दहरण औचित्यपूर्ण भी हैं और इस कारण सर्वथा ग्राह्य भी। दो कवियों के काव्यों में एक पद का साम्य विशेष ध्यान आकृष्ट नहीं करता। अतः किसी पूर्व कवि के काव्य से उसका एक पद ले लेना कवि के लिए दोष नहीं है क्योंकि किसी पूर्व कवि की रचना से एक पद अपनी काव्यरचना के लिए ग्रहण करना किसी कवि की पूर्वकवि पर पूर्ण निर्भरता का सूचक तो नहीं है। शब्द भण्डार के विपुल होने पर भी कवियों तथा उनकी काव्यरचनाओं के भी असंख्य होने के कारण एक कवि द्वारा प्रयुक्त पदों का दूसरा कवि प्रयोग ही न करे यह नियम नहीं बनाया जा सकता। जहाँ किसी कवि के एक पद को लेकर कवि अपनी विशिष्ट काव्यरचना प्रस्तुत कर सकते हैं, वहाँ किसी अन्य कवि के पद का ग्रहण औचित्यपूर्ण है किन्तु इसका औचित्य केवल वहीं तक सीमित है जहाँ तक किसी कवि के पद अन्य कवि की रचना में केवल सामान्य एकार्थक शब्द के रूप में प्रयुक्त हों। यदि पूर्व कवि के काव्य में कोई व्यर्थक पद प्रयुक्त है तो उसका बाद में आने वाला कवि अपनी काव्य रचना में प्रयोग नहीं कर सकता ऐसा आचार्य राजशेखर का विचार है ।पूर्व कवि द्वारा अपनी 1. 'पाद एवान्यथात्वकरणकारणं न हरणम् अपि तु स्वीकरणम्' इति आचार्याः। तदिदं स्वीकरणापरनामधेयं हरणमेव । काव्यमीमांसा - (एकादश अध्याय) 2 'तत्रैकपदहरणं न दोषाय' इति आचार्या: 'अन्यत्र द्वयर्थपदात्' इति यायावरीयः। काव्यमीमांसा - (एकादश अध्याय)
SR No.010645
Book TitleAcharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Srivastav
PublisherIlahabad University
Publication Year1998
Total Pages339
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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