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शब्दहरण के प्रकार तथा उनकी उपादेयता :
किसी पूर्व कवि के रचनांश को ग्रहण करते हुए अर्थात् उसके शब्दों को ही कुछ अंशों में अपनाते हुए जब कवि अपनी काव्यरचना करते हैं तो शब्दों को अपनाने से ही सम्बद्ध होने के कारण ऐसे हरण स्थल शब्दहरण के स्थल कहलाते हैं।1 शब्दहरण के विभिन्न प्रकारों का तथा उनके स्वीकरणीय तथा अस्वीकरणीय होने का आचार्य राजशेखर ने ही केवल विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया है। कवि शिक्षा से सम्बद्ध ग्रन्थ रचना के कारण ही ऐसा सम्भव हो सका। राजशेखर के पश्चाद्वर्ती कविशिक्षा से सम्बद्ध आचार्यों ने हरण का उल्लेख पूर्णरूप से नहीं किया है, जिन्होंने शब्दहरण का विषय अपनी रचनाओं में ग्रहण भी किया है, उन्होंने भी केवल पूर्वकाव्य रचनाओं में प्राप्त विभिन्न प्रकार के शब्दहरणों का उल्लेख मात्र कर दिया है। किस प्रकार का शब्दहरण उचित है और किस प्रकार का अनुचित इसका विवेचन उन्होंने नहीं किया है। सम्भवतः आचार्य राजशेखर द्वारा किए गए शब्दहरण के व्यापक तथा परिपूर्ण विवेचन ने ही बाद के आचार्यों को पिष्टपेषण के भय से ही इस विषय के व्यापक विवेचन की आवश्यकता का अनुभव नहीं होने दिया। वैसे शब्दहरण को हेमचन्द्र, वाग्भट्ट भोजराज, क्षेमेन्द्र तथा विनयचन्द्र सभी आचार्यों ने स्वीकार किया है। इन सभी आचार्यों ने दूसरों के पदग्रहण, पादग्रहण, उक्तिग्रहण तथा समस्यापूर्ति को शब्द हरण के अन्तर्गत स्वीकार किया है। भोजराज तथा वाग्भट्ट एक, दो से तीन तक पादों का हरण स्वीकार करते हैं। भोजराज तो केवल पदैकदेश का परिवर्तन करते हुए सम्पूर्ण पद्म के हरण को ही स्वीकार करते हैं। आचार्य क्षेमेन्द्र भी पद तथा पाद के हरण के साथ ही समस्त पद्य का अनुकरण करते हुए भी कवि का रचना कार्य में प्रवेश होना स्वीकार करते हैं । 'साहित्यमीमांसा' नामक ग्रन्थ में भी दूसरों की उक्तियों का अनुकरण 'छायोक्ति' नामक कवियों की वक्र उक्ति के रूप में स्वीकृत है।
शब्दहरण प्रत्येक अवस्था में स्वीकार्य तथा त्याज्य दो प्रकार के हो सकते हैं। प्रारम्भिक शिक्षार्थी कवियों को दूसरों के शब्दों का ग्रहण उनके हेयरूप तथा उपादेय रूप को ध्यान में रखते हुए ही करना चाहिए । 'काव्यमीमांसा' में दूसरों के शब्दहरण के दो रूप सामने आते हैं। वे हरण जो केवल
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तयोः शब्दहरणमेव तावत्पञ्चधा, पदतः, पादतः, अर्द्धतः, वृत्ततः प्रबन्धतश्च ।
काव्यमीमांसा - (एकादश अध्याय)