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अर्थहरण विवेचन का मूलाधार आनन्दवर्धन से प्राप्त मानने की भी सम्भावना हो सकती है-आनन्द
वर्धन ने इन भेदों का अधिक व्यापक ही विवेचन किया है। किन्तु साथ ही वह भी स्वीकरणीय है कि
ध्वन्यालोक में इस विषय का विवेचन संदर्भ सर्वथा पृथक है, वहाँ ये भेद कवियों के बुद्धि सादृश्य से अर्थ में आने वाली समानता के भेद हैं :-यह केवल अर्थभेद हैं, अर्थहरण भेद नहीं। आचार्य राजशेखर ने ध्वन्यालोक में विवेचित इन्ही अर्थभेदों को हरणभेदों के रूप में स्वीकार किया है, इसलिए अपने नाम तथा स्वरूप से उसी रूप में ध्वन्यालोक में विवेचित होने पर भी 'काव्यमीमांसा' में विवेचित अर्थहरण भेदों को विषयभेद तथा संदर्भभेद के कारण राजशेखर की अपनी मौलिक उदभावना के रूप में स्वीकृत
किया जा सकता है।
पूर्वकवि द्वारा वर्णित शब्द अर्थ भी काव्यरूप में वर्णित किए जा सकते हैं-इस स्वीकृति से आनन्दवर्धन के भी विवेचन में उपजीवन के विचार की प्रतीति हो सकती है किन्तु वस्तुतः ऐसा नहीं है, उपजीवन विवेचन यहाँ नहीं है। कविशिक्षा विषयक उपजीवन से उनका तात्पर्य कदापि नहीं है, उनका उद्देश्य कवि को काव्यरचना की शिक्षा देना नहीं था, वे काव्यात्मा के स्वरूप विवेचक है और इसी संदर्भ में उनका यह विवेचन है कि प्रायः एक ही प्रकार के शब्द, अर्थ जो पूर्व कवियों द्वारा वर्णित किए जा चुके हैं बाद के कवियों के काव्यों में भी दिखाई देते हैं किन्तु किसी न किसी रूप में कवि के वर्णन करने के अपने विशिष्ट ढंग से उन पुनः वर्णित शब्दों, अर्थों की नवीनता तथा मौलिकता भी आनन्दवर्धन को स्वीकार है। असंख्य काव्यों का अस्तित्व उन्हीं शब्दों का अनेक रचनाओं में आ जाने का कारण है और जहाँ तक अर्थ का सम्बन्ध है किसी भी अर्थ की पूर्ववर्णितता उसे पुराना और व्यर्थ सिद्ध नहीं करती, वह नवीन न होते हुए भी काव्यात्मा ध्वनि के संसर्ग से नवीन प्रतीत होता है। इस प्रकार पूर्व कवि के शब्दों, अर्थों का ही किसी अन्य कवि के काव्य में दिखलाई देना दोष नहीं हैआनन्दवर्धन के इस विचार को हरणविषयक विवेचन का आधार माना जा सकता है, क्योंकि दूसरों के शब्द अर्थ का ही अन्य कवि द्वारा ग्रहण हरण का भी विषय है किन्तु विवेचन का संदर्भ पृथक् होने से यह मानना सम्भव नहीं है क्योंकि हरण का विषय ध्वन्यालोक में उठाया नहीं गया। इस प्रकार पूर्व
1. सम्वादो ह्यन्यसादृश्यं तत्पुनः प्रतिबिम्बवत्।
आलेख्याकारवत्तुल्यदेहिवच्च शरीरिणाम् ॥ 12॥ तत्र पूर्वमनन्यात्म तुच्छात्म तदनन्तरम्। तृतीयं तु प्रसिद्धात्म नान्यसाम्यं त्यजेत्कविः ।। 13 ।।
ध्वन्यालोक - चतुर्थ उद्योत