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________________ [176] आचार्य राजशेखर की काव्यमीमांसा में तो इन कविसमयों का विस्तृत विवेचन है। परवर्ती आचार्यों जैसे हेमचन्द्र, देवेश्वर, केशवमिश्र, विश्वनाथ आदि ने भी इनका उल्लेख किया है। आचार्य राजशेखर तथा परवर्ती आचार्यों ने जिन कविसमयों का उल्लेख किया है उनमें 'असत्' का निबन्धना रूप कविसमय के अन्तर्गत नदी में कमल, नीलकमल आदि का होना, जलाशय मात्र में हंसादि की स्थिति, सर्वत्र पर्वतों में सुवर्ण रत्नादि का होना, अन्धकार का मुष्टिग्राह्य और सूचीभेद्य होना, ज्योत्स्ना का घड़े में भरा जाना, चक्रवाक मिथुन का रात्रि में भिन्न-भिन्न तटों पर रहना, चकोरों का चन्द्रिकापान, यश और हास की शुक्लता, अयश और पाप की कृष्णता, क्रोध और अनुराग आदि की रक्तता अन्तनिहित है। 'सत् का अनिबन्धन'2 के अन्तर्गत उल्लिखित कविसमयों में बसन्त में मालती के होने पर भी उसका वर्णन न करना, चन्दन में पुष्पफल का वर्णन न करना, अशोक में फल का वर्णन न करना कृष्णपक्ष में ज्योत्स्ना के होने पर भी उसका वर्णन न करना, शुक्ल पक्ष में अन्धकार का वर्णन न करना, तथा दिन में नीलकमल के विकास का वर्णन न करना तथा रात्रि में शेफालिका कुसुमों के डाल से गिरने का वर्णन न करना, कुन्दन की कलियों एवं कामियों के दाँतों के रक्तवर्ण का वर्णन न करना, कमलकलियों के हरितवर्ण का वर्णन न करना, प्रियंङ्ग पुष्पों के पीतवर्ण का वर्णन न करना आदि हैं। अनेक स्थानों में प्रचलित व्यवहारों का एक ही स्थान में प्रयोग करते हुए उनका नियमन कविसमय के ही एक भेद रूप में स्वीकृत है3 इसके अन्तर्गत मकर आदि का केवल समुद्र में वर्णन, ताम्रपर्णी नदी में ही मोतियों का वर्णन, मलयाचल में ही चन्दन की उत्पत्ति, हिमालय में ही भूर्जपत्रों का होना, ग्रीष्म और वर्षा में भी होने वाले कोकिल शब्द का केवल बसन्त में ही वर्णन, मयूर के नृत्य च। 1. तत्र सामान्यस्यासतो निबन्धनं यथा। नदीषु पद्योत्पलादीनि, जलाशयमात्रेऽपि हंसादयो, यत्र तत्र पर्वतेषु सुवर्णरत्नादिकं काव्यमीमांसा - (चतुर्दश अध्याय) 2 सतोऽप्यनिबन्धनं। तद्यथा न मालती वसन्ते, न पुष्पफलं चन्दनगुमेषु, न फलमशोकेषु। काव्यमीमांसा - चतुर्दश अध्याय 3. अनेकत्र प्रवृत्तवृत्तीनामेकत्राचरणं नियमस्तद्यथा। समुद्रेष्वेव मकराः, ताम्रपमिव मौक्तिकानि। काव्यमीमांसा - (चतुर्दश अध्याय)
SR No.010645
Book TitleAcharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Srivastav
PublisherIlahabad University
Publication Year1998
Total Pages339
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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