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ज्योत्सना का सौन्दर्य नहीं होता। अन्धकार के सामने वह फीकी लगती है। इसी कारण कवियों को उसमें सौन्दर्य नहीं दिखता। कृष्णपक्ष में अपनी प्रगाढ़ता के कारण अन्धकार ही कवियों को सुन्दर लगता है। इसी कारण वे कृष्णपक्ष में केवल अन्धकार का ही वर्णन करते हैं, ज्योत्सना का नहीं। शुक्लपक्ष में पूर्णचन्द्र की पूर्ण प्रकाशित शुभ्र ज्योत्सना के सम्मुख अन्धकार स्थित होने पर भी फीका सा प्रतीत होता है। इसी कारण शुक्लपक्ष में अन्धकार नहीं, किन्तु पूर्ण सौन्दर्ययुक्त ज्योत्सना ही कवियों का वर्ण्य विषय बनती है।
दिन में नीलकमल के विकास का वर्णन न करना :
नीलकमल जिसे कुमुद भी कहते हैं कवियों के अनुसार केवल रात्रि में ही विकसित होता है। दिन में नीलकमल के विकास का वर्णन करने की कविजगत् में परम्परा नहीं है, जबकि रक्तकमल, सुवर्णकमल तथा श्वेत कमल सभी का दिन में विकास काव्य में वर्णित होता है। काव्य में नील, श्याम तथा कृष्ण वर्णों की एकता मानी गई है। सम्भवतः नीलकमल की रात्रि के वर्ण से समानता के आधार पर ही उसके रात्रि में विकास की कल्पना की गई हो ।
रात्रि में शेफालिका कुसुमों के डाल से गिरने का वर्णन न करना :
शेफालिका के सुन्दर सुगन्धित पुष्प प्रातः काल होने के पूर्व रात्रि में ही डालों से गिरकर पृथ्वी पर बिखर जाते हैं। पृथ्वी पर बिखरे रहकर अधिक देर तक पड़े रहने से उनका मुरझा जाना स्वाभाविक है। प्रकृति का इन पुष्पों को रात्रि में डाल से गिराने वाला नियम उनके सौन्दर्य को व्यर्थ ही करता है सम्भवत: इसी कारण कवियों ने शेफालिका कुसुमों के रात्रि में डाल से गिरने का वर्णन नहीं किया, क्योंकि रात्रि में उनका डाल से गिरना वैसा ही है जैसे जंगल में मयूर का नृत्य, जिसे देखने वाला, प्रशंसा करने वाला कोई न हो ।
कुन्दन की कलियों एवं कामियों के दाँतों के रक्तवर्ण का वर्णन न करना :
कुन्दन की कलियों एवं कामियों के दांतों का सत् रूप में रक्तवर्ण है किन्तु कवियों में कुन्दन की कलियों तथा कामियों के दांतों के रक्तवर्ण में वर्णन की परम्परा नहीं है। इन निबन्धन नियमों में कवियों की कोई सौन्दर्य भावना ही होगी। कलियों में तथा दांतों में कवियों को श्वेत वर्ण में ही सौन्दर्य दृष्टिगत हुआ होगा।