SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 170
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [163] चकोरों का चन्द्रिकापान : कवियों की कविसमय के रूप में चकोरों के चन्द्रिकापान की भी एक सुन्दर कल्पना है। यह सत्य नहीं है कि चकोर चन्द्रिकापान करते हैं। चन्द्रिका तो प्रकाश मात्र है कोई तरल पदार्थ नहीं, जिसका पेय रूप सम्भव हो। चन्द्रमा को अमृतवर्षी रूप में स्वीकार करने की कल्पना चकोरों के चन्द्रिकापान की कल्पना में निहित मानी जा सकती है। चन्द्रमा द्वारा बरसाई गई अमृत रूप ज्योत्सना के चकोरों के पेय होने की कल्पना की जा सकती है क्योंकि अमृत तरल पदार्थ के रूप में स्वीकृत है तथा केवल तरल पदार्थ का ही पेय स्वरूप सम्भव है, किन्तु यदि चन्द्रिका को अमृत रूप मानकर पेय माना भी जाए तो भी उसके पान की कल्पना चकोरों के लिए ही क्यों की गई? इस विषय में यही कहा जा सकता है कि सम्भवत: चकोर पक्षी मुंह आकाश की ओर उठाए रहने के तथा चन्द्रमा को देखते रहने के अभ्यस्त हों, उनका यही अभ्यास कवियों के लिए चकोरों के चन्द्रिकापान की कल्पना का आधार बन गया होगा। कवियों की यह सुन्दर कल्पना चन्द्रमा के प्रति चकोर के प्रेम प्रदर्शन के द्वारा प्रेम के प्रस्तुतीकरण का सुन्दर माध्यम ही मानी जा सकती है। यश का श्वेत तथा अपयश का कृष्ण वर्ण : यश तथा अपयश भाव हैं वस्तु नहीं, इनका कोई वर्ण नहीं होता, किन्तु कवियों ने इनके स्वरूप के स्पष्टीकरण का माध्यम वर्गों को स्वीकार किया। कवियों की दृष्टि में यश का श्वेत वर्ण है तथा अपयश का श्याम वर्ण। यश के श्वेत शुभ्र वर्ण को स्वीकार करने का कारण यश का प्रकाश के समान वैभवशाली तथा प्रसरणशील रूप माना जा सकता है। प्रकाश के समान ही यश का प्रसरण तथा इसी कारण प्रकाश का शुभ्र श्वेत वर्ण यश को भी प्रकाश के समान शुभ्र श्वेत मानने की कल्पना का आधार बना हो ऐसी सम्भावना हो सकती है। यश के विपरीत अपयश का कवियों ने उसके शुभ्रवर्ण के विपरीत ही कृष्ण अथवा श्याम वर्ण स्वीकार किया है। अपयश भी प्रसरणशील तो है, किन्तु वैभवशाली प्रसन्नतादायक शुभ्र यश के समान व्यक्ति के गुणों को प्रकाशित नहीं करता, किन्तु अन्धकार के समान मलिन रूप में फैलता है तथा व्यक्ति के अवगुणों को मलिनता सहित प्रकट करता है। मलिन वस्तु के श्यामवर्ण के अंश का होना अवश्यम्भावी है। सम्भवतः इसी कारण मलिन अपयश कवियों की कल्पना
SR No.010645
Book TitleAcharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Srivastav
PublisherIlahabad University
Publication Year1998
Total Pages339
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy