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________________ [152] काव्यार्थ के इस सहृदयहृदयहारित्व रूप वैशिष्ट्य को ध्यान में रखते हुए कविसमय के स्वरूप का यदि विचार किया जाए तो कविसमय की स्थिति के विषय में कहा जा सकता है कि सम्भव है कुछ अर्थो को विशिष्ट सहृदयहृदयहारी रूप में प्रस्तुत करने के लिए कवियों ने उनका भिन्न रूप में वर्णन किया तथा यही भिन्न रूप परम्परा से अपने उसी सहृदयहृदयहारी रूप में अर्थात् अपने वास्तविक रूप से भिन्न रूप में निबद्ध होते रहे। सम्भव है उनके वास्तविक रूप में सहृदयहृदयहरण की क्षमता तत्कालीन कवि समाज की दृष्टि में न रही हो, इसलिए उन अर्थों का उनके वास्तविक रूप से भिन्न रूप में उपनिबन्धन औचित्यपूर्ण माना गया। किन्तु कविसमयों की स्थिति का, उनके परम्परा बन जाने का कारण उनका सहृदयहृदयहारित्व ही है इस विचार की केवल सम्भावना ही की जा सकती है। आचार्य भोजराज के अनुसार काव्य में रसनिष्पन्नता के लिए नवीन अर्थ, अग्राम्यासूक्ति, श्रव्यबन्ध, स्फुटश्रुति और अलौकिक अर्थ से युक्त उक्ति की आवश्यकता है ।। अलौकिक अर्थ की रसपोषकता को दृष्टि में रखकर यह भी स्वीकार किया जा सकता है कि कविसमय के रूप में अलौकिक अर्थों के निबन्धन का रस की दृष्टि से कुछ न कुछ महत्व अवश्य रहा होगा। सम्भव है कि जो अशास्त्रीय, अलौकिक कविसमय प्रसिद्ध है उनका शास्त्रीय, लौकिक रूप रसानुकूल न रहा हो, रसपोषकता में वे किसी कारण सक्षम नहीं रहे होंगे। इसी कारण उनका अशास्त्रीय अलौकिक रूप रसपोषक होने के कारण स्वीकार किया गया। इसके साथ ही कवि को काव्य में अर्थ का सुन्दरतम रूप अभीष्ट होता है । सम्भव है अशास्त्रीय, अलौकिक कविसमयों के शास्त्रीय, लौकिक रूप सुन्दरतम न रहे हों, और इसी कारण रस के विपरीत भी। अतः उनका सुन्दरतम रसानुकूल रूप प्रस्तुत करना आवश्यक था जो अपने शास्त्रीय, लौकिक रूप के विपरीत होने से अशास्त्रीय और अलौकिक हो गया। 1. नवोऽर्थः सूक्तिरग्राम्या श्रव्यो बन्धः स्फुटा श्रुतिः। अलौकिकार्थयुक्किाच रसमाहर्तुमीशते ।7। (सरस्वतीकपठाभरण (भोजराज) पञ्चम परिच्छेद ।
SR No.010645
Book TitleAcharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Srivastav
PublisherIlahabad University
Publication Year1998
Total Pages339
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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