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________________ [125] स्थान विद्यागृह आदि में अनुशीलन ।। विभिन्न विद्याओं के अनुशीलन की कवि को प्रतिभा का अस्तित्व होने पर भी उसके अभिवर्धन के लिए, विभिन्न विषयों में व्युत्पन्न होने के लिए तथा काव्य संघटना के औचित्यपूर्ण निर्माण की क्षमता प्राप्त करने के लिए महती आवश्यकता है। निरन्तर काव्यसम्बन्धी विवेचन से सम्बद्ध रहने के कारण कवि के मानस में काव्य सम्बन्धी विभिन्न जिज्ञासाओं एवं समस्याओं का उत्पन्न होना सम्भव है। अत: पूर्णतः सन्देह रहित मन से काव्यनिर्माण में संलग्न होने के लिए काव्यज्ञाताओं की संगति में काव्यगोष्ठी में प्रवृत्त होकर अपनी सभी समस्याओं का प्रश्नोत्तरों द्वारा समाधान कवि का दिन के द्वितीय प्रहर का कार्य है ।2 काव्यसम्बन्धी समस्याओं के समाधान के पश्चात् ही काव्यनिर्माण के अभ्यास में प्रवृत्त होने का औचित्य है। दिन के तृतीय प्रहर के कार्य काव्य निर्माण के अभ्यास से सम्बद्ध हैं। इन कार्यों के अन्तर्गत ही आचार्य राजशेखर ने चित्र काव्य के निर्माण तथा सुन्दर अक्षरों के अभ्यास को भी सम्मिलित किया है जो कवि की प्रारम्भिक अवस्था से सम्बद्ध कार्य हैं ३ इस प्रहर में रसावेश में रचित काव्य शब्दसंघटना आदि के प्रति चित्त की अनवधानता के कारण त्रुटियुक्त हो सकता है। रचित काव्य का पुनः परीक्षण तथा त्रुटियों का संशोधन कवि के दिन के चतुर्थ प्रहर के कार्यों के अन्तर्गत स्वीकृत है। रसावेश में रचित काव्य अधिक पदों की स्थिति, पदों का न्यून होना, पदों की अन्यथास्थिति (उचित स्थान से अतिरिक्त स्थिति) अथवा पदों का विस्मरण आदि त्रुटियों से युक्त हो सकता है। इस प्रहर में कवि को त्रुटियों को दूर करके काव्य को छन्द तथा शब्द संघटना की दृष्टि से पूर्णतः शुद्ध बनाने की आवश्यकता है। 1. ततो विद्यावसथे यथासुखमासीनः काव्यस्य विद्या उपविद्याश्चानुशीलयेदाप्रहरात्। न ह्येवं विधमन्यत्प्रतिभाहेतुर्यथा प्रत्यग्रसंस्कारः। (काव्यमीमांसा - दशम अध्याय ) 2 द्वितीये काव्यक्रियाम्। उपमध्याहूं नायादविरूद्धम् भुञ्जीत च। भोजनान्ते काव्यगोष्ठी प्रवर्तयेत्। कदाचिच्च प्रश्नोत्तराणि भिन्दीत। (काव्यमीमांसा - दशम अध्याय ) 3. काव्यसमस्या धारणा, मातृकाभ्यासः, चित्रा योगा इत्यायामत्रयम्। (काव्यमीमांसा - दशम अध्याय) 4. चतुर्थ एकाकिनः परिमितपरिषदो वा पूर्वाह्रभागविहितस्य काव्यस्य परीक्षा। रसावेशतः काव्यं विरचयतो न च विवेकत्री दृष्टिस्तस्मादनुपरीक्षेत। अधिकस्य त्यागो, न्यूनस्य पूरणम्, अन्यथास्थितस्य परिवर्तनम्, प्रस्मृतस्यानुसन्धानम् चेत्यहीनम्। (काव्यमीमांसा - दशम अध्याय )
SR No.010645
Book TitleAcharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Srivastav
PublisherIlahabad University
Publication Year1998
Total Pages339
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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