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द्वितीय वर्ग आदि में कुछ मधुर स्वाद वाली रचनाओं का है- इनमें अन्त में सर्वथा नीरस वार्ताक पाक त्याज्य, अन्त में कुछ मध्यम स्वाद वाली रचना तिन्तिडीक पाक संस्कार्य तथा अन्त में पूर्णत: सरस सहकार पाक ग्राह्य है।
तृतीय वर्ग आदि में स्वादु रचनाओं का है-जिनमें अन्त में नीरस रचना क्रमुकपाक त्याज्य है अन्त में कुछ सरस त्रपुसपाक संस्कार्य है तथा अन्त में पूर्णत: सरस नालिकेर पाक ग्राह्य है।
___ इन नौ प्रकार की रचनाओं के अतिरिक्त कुछ ऐसी भी रचनाएँ होती हैं जिनका रूप अव्यवस्थित होता है-वे कहीं सरस, कही नीरस, कहीं मध्यम स्वादवाली होती हैं इस प्रकार की रचनाओं को आचार्य राजशेखर कपित्थपाक कहते हैं। इस पाक में कदाचित् किसी प्रकार की सूक्तियाँ भी मिल सकती हैं। आचार्य भामह के काव्यालंकार' में भी कपित्थपाक वाली रचना का उल्लेख मिलता है।2 आचार्य भामह की दृष्टि में इस पाक का स्वरूप अहृद्य है। इस प्रकार की रचना के अवगाहन में विद्वान् भी सरलतापूर्वक समर्थ नहीं होते। यह पाक रसयुक्त होने पर भी रमणीयता तथा शोभा से रहित होता है। विभिन्न वस्तुओं के स्वाद के समान ही स्वाद अथवा सरसता नीरसता से सम्बन्ध होने के कारण इन विभिन्न प्रकार की रचनाओं को उन वस्तुओं का ही नाम दिया गया है। कपित्थपाक के सम्बन्ध में
भामह के विचारों से राजशेखर का विरोध प्रतीत होता है, क्योंकि भामह का कपित्थपाक सरस होने पर
भी मनोहारी नहीं है, किन्तु राजशेखर की दृष्टि में काव्य में सरसता ही ग्राह्य है।
विभिन्न प्रकार की रचनाओं अथवा पाकों का उल्लेख अन्य आचार्यों के ग्रन्थों में भी मिलता
है। 'अग्निपुराण' में उभयगुण के भेद रूप में स्वीकृत पाक के मृद्वीका, नालिकेर तथा अम्बुपाक आदि
1. अनवस्थितपाकं पुनः कपित्थपाकमानन्ति। तत्र पलालधूननेन अन्नकणलाभवत्सुभाषितलाभः।
(काव्यमीमांसा - पञ्चम अध्याय)
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अहृद्यमसुनिर्भेदं रसवत्त्वेऽप्यपेशलम् काव्यं कपित्थमामं यत् केषाञ्चित् तादृशं यथा। 62।
काव्यालङ्कार-भामह (पञ्चम परिच्छेद)