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________________ [110] काव्यपाक:- विकास के परिणामस्वरूप प्रारम्भिक कवि का भी काव्य क्रमशः परिवक्वता तथा रमणीयता से समन्वित होता जाता है। कवि के काव्य की पूर्ण परिपक्वता की स्थिति को विभिन्न काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों में 'काव्यपाक' शब्द से अभिहित किया गया है। इस परिपक्वता को आचार्य कवि द्वारा किए गए निरन्तर अभ्यास का परिणाम मानते हैं। किसी काव्य को किस स्थिति में परिपक्व कहना सम्भव है इस विषय में आचार्यो के विभिन्न मत हैं। आचार्य मङ्गल पाक की स्थिति सुन्दर शब्दों के प्रयोग अथवा सुबन्त, तिङ् न्त शब्दों की क्षोत्रमधुर व्युत्पत्ति को मानते हैं।1 कुछ आचार्यों के अनुसार काव्य के पद विन्यास के सम्बन्ध में चित्त की स्थिरता काव्यपाक की स्थिति है। आचार्य वामन पद के परिवर्तन की अपेक्षा न होने को ही काव्य परिपक्वता की कसौटी मानते हैं- उनकी धारणा है कि प्रायः आग्रह के कारण भी कवि के मानस में काव्य के पदों को रखने, हटाने में चित्त चंचल बना रहता है। अतः काव्य का वह रूप जिसमें काव्य के पद पुनः परिवर्तन की अपेक्षा नहीं रखते काव्य परिवक्वता की स्थिति है। अनिर्वचनीय शब्दपाक वैदर्भी रीति में उदित होता है ।2 आचार्य राजशेखर की पत्नी अवन्तिसुन्दरी काव्यपाक का सम्बन्ध काव्य के शब्दों से नहीं, वरन् रस से मानती हैं। आचार्य वामन के मत की उन्होंने आलोचना की है। उनकी धारणा है कि महाकवि के काव्यों में एक ही विषय में सम्बद्ध अनेक पाठ प्राप्त होते हैं, उनसभी को उपयुक्त तथा परिपक्व रूप में ही स्वीकार किया जा सकता है। इसी कारण अवन्तिसन्दरी काव्य में 1. सततमभ्यासवशतः सुकवे: वाक्यं पाकमायाति। कः पुनरयं पाक:? इत्याचार्या : 'परिणामः' इति मङ्गलः। ............सुपां तिङ्गं च श्रवः (प्रि?) या व्युत्पत्तिः इति मङ्गलः। सौशब्द्यमेतत्। 'पदनिवेशनिष्कम्पता पाक:,' इत्याचार्याः (काव्यमीमांसा-पंचम अध्याय) - वचसि यमधिगम्य स्पन्दते वाचकश्रीवितथमवितथत्वं यत्र वस्तु प्रयाति। उदयति हि सा ताट्टक् क्वापि वैदर्भरीतौ सहृदयहृदयानां रञ्जकः कोऽपि पाकः (1/2/21) काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ति (वामन) 'आग्रहपरिग्रहादपि पदस्थैर्यपर्यवसायस्तस्मात्पदानाम् परिवृत्तिवैमुख्यं पाकः' इति वामनीयाः। तदाहु : "यत्पदानि त्यजन्त्येव परिवृत्तिसहिष्णुतां । तं शब्दन्यायनिष्णाता: शब्दपाकं प्रचक्षते।" (पञ्चम अध्याय) (काव्यमीमांसा)
SR No.010645
Book TitleAcharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Srivastav
PublisherIlahabad University
Publication Year1998
Total Pages339
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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