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आदि काव्य में भाषासौन्दर्य के निबन्धन से सम्बद्ध अभ्यास है। सुशिष्य के लिए आचार्य ने साहित्य के ज्ञाताओं की सत्सङ्गति में भाषा तथा छन्द विधान के अभ्यास की उपादेयता बतलाई है। दुःशिष्य के लिए महाकवि के सान्निध्य में दूसरों के पद्यों के पद, पाद आदि को परिवर्तित करते हुए काव्यनिर्माण का अभ्यास करने की आवश्यकता होती है। रचनाकार्य में प्रवेश हेतु (दूसरे के पद्य के पद, पाद अथवा समस्त पद्य के अनुकरण में अपना पद्य बनाना रूप) छायोपजीवन द्वारा अभ्यास क्षेमेन्द्र की दृष्टि में कवि बनने के प्रारम्भिक चरण में उपयोगी होता है। आचार्य क्षेमेन्द्र की अभ्यास से सम्बद्ध अन्य शिक्षाएँ हैंप्रौढ़ि, छन्दपूर्ति, समस्यापूर्ति, प्रभात में जागरण, देश, भाषा के काव्यों से भावग्रहण, पद रखने तथा हटाने की बुद्धि, संशोधन, ज्ञान के लिए सबका शिष्य बनने की उदारता, मध्य में विश्राम ग्रहण, दूसरों की अधूरी कृतियों को तथा अपने प्रारम्भ किए काव्य को पूरा करना आदि।
आचार्य कुन्तक की अभ्यास से सम्बद्ध धारणा अपना वैशिष्ट्य रखती है। उनके अनुसार
विभिन्न कवियों का अभ्यास उनके स्वभाव के अनुसार भिन्न प्रकार का होता है। सुकमार स्वभाव कवि
के लिए सुकुमारता सम्पन्न अभ्यास, विचित्र स्वभाव कवि का वैचित्र्ययुक्त अभ्यास तथा उभय स्वभाव
कवि का सौकुमार्य तथा वैचित्र्य दोनों से संयुक्त अभ्यास उपादेय है।1 इस विषय में आचार्य क्षेमेन्द्र तथा
आचार्य राजशेखर को आचार्य कुन्तक के विचार के समान भी माना जा सकता है, क्योंकि यह दोनों
आचार्य भी विभिन्न प्रकार के कवियों के लिए विभिन्न प्रकार के अभ्यास की उपादेयता स्वीकार करते
हैं।
1. कविस्वभावभेद निबन्धनत्वेन काव्यप्रस्थानभेदः समञ्जसतां गाहते। सुकुमारस्वभावस्य कवेस्तथाविधैव सहजा शक्तिः
.........ताभ्याञ्च सुकुमारवर्त्मनाभ्यासतत्परः क्रियते। तथैव चैतस्माद् विचित्र:स्वभावो यस्य.............ताभ्याञ्च वैचित्र्यवासनाधिवासितमानसो विचित्रवर्मनाभ्यासभाग भवति। एवमेतदुभयकविनिबन्धनसंवलितस्वभावस्य कवेस्तदुचितैव........ । ततस्तच्छायाद्वितंयपरिपोषपेशलाभ्यास परवशः सम्पद्यते। तदेवमेते कवयः सकलकाव्यकरणकलापकाष्ठाधिरूठि रमणीयं किमपि काव्यमारभन्ते, सुकुमारं विचित्रमुभयात्मकश्च । वक्रोक्तिजीवित (कुन्तक) प्रथम उन्मेष।