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अन्य अवस्थाओं को भी पार करना पड़ता है-यह क्रमबद्ध विकास ही उसे श्रेष्ठ कवि की अवस्था तक पहुँचा पाता है।
इन सात अवस्थाओं के अतिरिक्त तीन अवस्थाएँ औपदेशिक कवि की भी हैं, किन्तु इनका विकासक्रम से सम्बन्ध नहीं है क्योंकि औपदेशिक कवि का विकासक्रम सम्भव नहीं है । मन्त्र आदि के उपदेश से जिस भी समय कवित्व प्राप्त हो सके उसी समय वह काव्यनिर्माण में समर्थ हो जाता है।
आवेशिक :- मन्त्रादि के उपदेश से जिस समय कवित्व प्राप्त हो उसी समय काव्यनिर्माण आवेशिक की अवस्था है।
अविच्छेदी :- अविच्छेदी कवि की कवित्व प्रेरणा उसके मनोनुकूल कार्य करती है और वह
जव चाहे तभी धाराप्रवाह किसी भी विषय पर काव्य निर्माण कर सकता है
सङ्क्रामयिता :- सङ्क्रामयिता स्वयं काव्यरचयिता नहीं है बल्कि मन्त्रसिद्धि द्वारा कन्याओं अथवा कुमारों पर वह सरस्वती सङ्क्रमित कर देता है और कन्या अथवा कुमार काव्यरचना करने लगते
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आचार्य राजशेखर द्वारा विवेचित कवि के विकासक्रम की यह अवस्थाएँ काव्यशास्त्रीय जगत् के लिए सर्वथा नवीन विषय हैं- राजशेखर के परवर्ती आचार्यों ने कवि के क्रमिक विकास को स्वीकार करते हुए भी इस प्रकार की अवस्थाओं के विवेचन को विषय नहीं बनाया।
(काव्यमीमांसा - पञ्चम अध्याय)
1. यो मन्त्राद्युपदेशवशाल्लब्धसिद्धिरावेशसमकालं कवते स आवेशिकः। 2 यो यदैवेच्छति तदैवाविच्छिन्नवचनः सोऽविच्छेदी। 3 यः कन्याकुमारादिषु सिद्धमन्त्रः सरस्वतीम् सङ्क्रामयति स सङ्क्रामयिता।
(काव्यमीमांसा - पञ्चम अध्याय) (काव्यमीमांसा-पञ्चम अध्याय)