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________________ ४० | मुक्ति का अमर राही : जम्बूकुमार 1 का अनुभव हुआ । माता-पिता पुत्र की इस धार्मिक प्रवृत्ति से असीम आनन्दित हुए । माता ने कहा कि वत्स ! यह तुमने बड़ा अच्छा किया। सोभाग्यशालियो को ही आर्यश्री के दर्शनो का सुयोग प्राप्त होता है और उनके वचनामृत मे तो तन-मन मे जो_अकथनीय शान्ति व्याप्त हो जाती है—उसकी तो महिमा हो कुछ असाधारण है । माँ के स्वर मे स्वर मिलाते हुए जम्बूकुमार ने कहा कि आपकी धारणा सर्वथा यथार्थ है माता | मैंने भी आर्यश्री, के उपदेशो से ऐसा ही चमत्कार अनुभव किया है । मेरे मन मे तो अद्भुत परिवर्तन आगया है । मेरे अन्तरमन में पिछले लम्बे समय से जो प्रश्न कौंध रहे थे, आज आर्यश्री के प्रवचन मे उन सबका उचित समाधान मिल गया । जीवन और जगत् को, 'सुख और दुख को, धर्म और उसके मर्म को, मानव जीवन की महत्ता और उसके परम लक्ष्य को आज मैं उनके यथार्थ रूप में भली-भाँति पहचान गया हूँ । मुझे आप लोगो की अनुमति लेनी थी कि तुरन्त आर्य सुर्मास्वामी के चरणो मे बैठकर दीक्षा ग्रहण कर लूं, इसी कारण मे शीघ्रता से आपकी सेवा मे उपस्थित हो रहा था कि नगर द्वार पर वह दुर्घटना हो गयी । पिताजी, इस दुर्घटना ने मेरे नेत्र खोल दिये हैं । मनुष्य के जीवन का कुछ भी भरोसा नही है । वह कभी भी कराल काल का आहार वन सकता है । अत मानव जीवन के उच्चतम लक्ष्य - 'मोक्ष प्राप्ति' के प्रयत्न के किमी को भी विलम्ब नही करना चाहिए । यही सोचकर मैं पुन. आर्यश्री की सेवा मे उपस्थित हो गया और आजीवन ब्रह्मचर्यव्रत का मन्त्र लेकर आया हूँ । अब हे माता
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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