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६ : गृहत्याग का निश्चय एवं विवाह-स्वीकृति
नगर द्वार पर घटित दुर्घटना का समाचार सुनकर माता धारिणीदेवी और पिता ऋषभदत्त के तो प्राण ही सूख गये । वे अपने नयनो के तारे को सकुशल देख लेने को आतुर हो उठे थे । व्यग्न माता की दशा तो बडी ही दयनीय हो गयी थी। पिता भी किंकर्तव्यविमूढ हो गये । इसी समय मुख्य द्वार पर रथ के रुकने
की ध्वनि सुनाई दी । अश्व की हिनहिनाहट ने उनके धड़कते हृदयो 'को तनिक-सा आश्वस्त किया । प्रसन्नता की कान्ति से माता-पिता के नेत्र जगमगा उठे । कान्तिरहित मुख मण्डल पर एक सुख और सन्तोष झलकने लगा। माता ने बढकर अपने प्रिय पुत्र को गले से लगा लिया। पिता ने पुत्र की पीठ को सहलाते हुए प्यार की थपकी दी । दोनो ने पुत्र के समक्ष विगत चिन्ता और विषाद की कथा कही और अब पुत्र को सकुशल देखकर अपने हृदय की अपार प्रसन्नता व्यक्त की। माता ने पुत्र से योही प्रश्न कर लिया कि वह गया कहाँ था ? काफी देर से उसे घर मे न पाकर वह वैसे ही चिन्तित हो रहो थी।
जम्बूकुमार ने गम्भीरता के साथ बताया कि आज वह गुणशीलक चैत्य मे आर्य सुधर्मास्वामी के दर्शनार्थ गया था। वहाँ आर्यश्री की वन्दना कर उसे अतीव आत्मिक सन्तोष और शान्ति