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________________ गृहत्याग का निश्चय एवं विवाह-स्वीकृति | ४१ और पूज्य पिताजी ! आप कृपा कर मुझे प्रनजित होने के लिए अनुमति प्रदान कर दीजिए। इसी मैं मेरे जीवन की सार्थकता है । सासारिक जीवन को मैं दुखमय मानता हूँ, उसकी सुखमयता को मैं प्रवचना मानता हूँ। ऐसी स्थिति मे अब मैं आत्म-कल्याण के मार्ग पर अग्रसर होना चाहता हूँ। आशीर्वाद दीजिए कि मैं अपने मनोरथ मे सफल होऊँ और अन्य दुखी प्राणियो को भी दुख से मुक्त करने में सहायक हो सकू। जम्बूकुमार तो मौन हो गये । माता-पिता के कोमल स्नेहपूर्ण हृदयो पर भी एक तीव्र आघात हुआ था-वे भी अवाक रह गये। क्या उत्तर देते ? माता के स्वप्नो की फुलवारी पर तो पाला पड गया । उसे सर्वत्र शून्य ही शून्य अनुभव होने लगा था। पिता की चिन्ता की भी कोई सीमा नही रही । अकस्मात ही यह नवीन परिस्थिति उठ खडी हुई थी। धारिणीदेवी और श्रेप्ठि ऋषभदत्त-दोनो के नेत्र छलछला आये । अपनी अस्थिरता पर अंकुश लगाते हुए प्रयत्नपूर्वक श्रेण्ठिं ने अपने आपको नियत्रित किया और पुत्र से कहने लगा कि जम्बूकुमार ! तुम आर्यश्री के दर्शनार्थ गये, उनके वचनामृत का पान किया-यह तो परम हर्ष का विषय है। हमारे वश मे जिन-शासन की बडी दृढ़ परम्परा रही है । हमारे पूर्वजो मे सदा ही धर्म के प्रति अगाध श्रद्धाभाव रहा है, किन्तु उनमे से किसी ने भी प्रव्रज्या ग्रहण नही की। हम दोनो भी धर्म के प्रति अगाध रुचि रखते हैं; तन-मन-धन से धर्म को सेवा किया करते हैं, किन्तु हमारे मन में भी प्रवज्या का विचार कभी अकुरित नहीं हुआ। ऐसी स्थिति मे नुम्हारे द्वारा
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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