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[कवि जान कृत पाछे गये पहार लौ, बहुत बढ़ी कर लूट । जुगल बाजकै हाथते, गयो चिरीसौं छुट ॥३५०॥ उत ते ये दोऊ फिरै, जैत दमांमे देत । रानांकी रज लूट ली, गज हय दर्ब समेत ॥३५१।। अब आये नागौरमें, नेजो पुनि नीसांन । लुटवाये पेरोजखां, ते पठये चहुवांन ॥३५२॥ बहुत चप्यो पेरोजखां, मुख ना सकै दिखाइ। बात चले जब जुद्धकी, सुनि सुनि अधिक लजाइ ॥३५३।।
और इतपर जस जुरे, ताजन महमदखांन । काक भये पेरोजके, पढ़िहै सकल जहांन ॥३५४॥ स्वांम भगे सेवक लरे, ते रजवंत विचार । जर उखरे तरु ठाहरै, तैसौ यहु अधकार ॥३५५।। चोरी डिठ पेरोजखां, जव ये दोउ जाहिं । अयौ ग्वैयोही रहैं, हंसि बोलत है नांहि ॥३५६॥ जो आपुन कापुरस ह्व, सुभट न भावै ताहि । जैसौ कोऊ आप है, करै सु तैसे चाहि ॥३५७।। चोरी डिठ पेरोजखां, रोस भरे चहुवांन । अनरसमै ही ऊठि चले, ताजन महमदखांन ॥३५८।। बंबु दमामेकी सुनी, रिस उपजी चित खांन । अपनै दलसौं यों कह्यौ, इनको देहु न जान ।।३५९।। नागोरी पेरोजखां, दल बल साजि अपार । आइ दबाये लरनकौं, फिरे जुगल जूझार ॥३६०।। जुद्ध मच्यौ नारद नच्यो, भाज बच्यो नहि सूर । चितसौं जूझे जोध तिन, हितसौ ले गई हूर ॥३६१॥ परे खेतमैं ताजखां, जबहि होइ घनघाइ । निकसे महमदखांनु तब, नाहि सके ठहराइ॥३६२॥