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[कवि जॉन कृत ॥ दोहा ।। क्यामखाँन घर आपन, मल्लू दिल्ली मांहि ।
बहुत रोस मन दुहुँनकै, कबहूं भेटत नांहि ॥२२५।। काबिलमें तब रहत है, पातसाह तैमूर । सप्त दीपमें परगट्यो, कहत जांन ज्यों सूर ॥२२६॥ . उत्तर दिछन पूरब पछिम, अगनेई ईसान । नैरित बाइब तिमरकी, अस्ट दिसामै प्रान ॥२२७।। चगता आये जगतमै, कीनौ कर्म इलाह। तबके पतिसाही करे, हैं जाती पतिसाह ॥२२८। रूम साम औराक ली, खुरासान इक धाप । भयो तिमर मन हिंदकौ, इत चलि आये आप ॥२२॥ मलू सुन्यो आयो तिमर, चल्यो लरन दल साज । मुगलनिको देखत डर्यो, छाड़ी रज सत लाज ॥२३०।। तिमर भयो दल धूरिको, आयो तिमर रिसाइ । मलू जहां डिढु करतु है, तिहां तिमर डिढु आइ ॥२३१॥ नांव तिमर तप तिमरहर, लरन सकत है कोइ । लरै सिकंदर जुलिकरन, जो अव जगमै होइ ॥२३२॥ मलूवा वपरौ कौन है, जो सनमुख ठहराइ । जोति गई मिटि तिमर ते, भाज दुर्यो बन जाइ ॥२३३॥ अर्कतूल मला भयो, तिमरल्यंग दल बाइ । पल न सक्यो ठहराइक, डार्यो केहूं उड़ाई ॥२३४॥ जैत भई तब तिमरकी, लूट्यो ढीली माल । आइ बिराज्यो तखतपर, चगता मरद मुछाल ।।२३।। मलुआ पाछे दल दये, आपुन ढीली मांहि । ढिली मंडलमै नैकु हौ, रहन दयो वहु नांहि ।।२३६।। तिमरलंगकै जीवमै, उपजी काबुल चाहि । खिदरखांनूंकौ सौपक, दिली चले पतिसाहि ॥२३७॥