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[कवि जान कृत उज भयो घर इरमकै, ताकै भयौ समूद । वै पुनि ज्वाला कालकी, जरि निबरे ज्यो ऊद ॥३७॥ वाके राजा आद हुव, ताके पुत्र अनाद । तातें भयो जुगाद जग, तिहं नंदन ब्रह्माद ॥३८॥ मेर भयो ब्रह्मादकै, अरु मंदिर घर तास । मंदिरकै घर जान कहि, उपज्यौ सुत कैलास ॥३९॥ वाकै भयौ समुद्र सुत, जाके उपज्यौ फेन । ताकै बसिग अतुलि बल, संम न करै बलि बैंन ॥४०॥ बसिगको सुत राह है, है साहसीक मल सूर। दुर्जनकौं ऐसै गहत, राह गहत जिम सूर ॥४१॥ रावन है सुत राहको, धुंधमार सुत ताहि। भयो चक्रवै जगतमै, उपमा दीजै काहि ॥४२॥ परगट सकल जहानमै, करिहौ कहा वखांन । उदै अस्त लौ जान कहि, धुंधमारकी आन ॥४३॥ प्रगट्यो तिहि मारीच सुत, प्राची और प्रतीच।। बदन किरन यों जगमगै, जैसे सूर मिरीच ॥४४॥ वाकै राजा जमदगिन, विधु सुमिर्यो करि चाइ । परसराम तिहं सुत भयो, चार चक्कको राइ ॥४५॥ परसरामके जुद्ध सब, वरने नाहिंन जाहि । जो बरनौं तौ जान कहि, लिखनंहार अर नांहि ।।४६।। परसराम सुत सूर है, ताकै बछ बड़ जोत । चाहुवान है जगतमै, ते सव बछ सगोत ॥४७॥ चाइ भयो सुत बछको, बिधु सुमिर्यो करि चाइ। चाहुवांन तिहि सुत भयो, करता आयो भाइ ॥४८॥ चाहुवांन यातें कह्यो, चहूं कूटमें ांन । सगरै जंबू दीपमै, संम कौ गोत न आन ।।४।।