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[कवि जान कृत जबहि गयौ मिटि जगततें, जांमैको हंगाम। तबहि पठये बहुर दल, जाइ करहु संग्राम ॥१०२६॥ बहुर जाइ घेरौ कीयौ, पै ना आयौ हाथ । तजि खंधार काबल तबहि, आयौ सिगरौ साथ ॥१०२७॥ तीजै बहुर हुकम भयौ, तब फिर लागे जाइ। ना कछु छत्रपतिसौ चले, गढ़सौ कछु न बसाइ ॥१०२८॥ जुझां होत है रैन दिन, छूटत गोली नाल । जाकै लागत जात है, तिहं जिय गोली नाल ॥१०२६॥ ' दौलतखां दीवान जू, चढ़ि चढ़ि दोरै पाप । बिचकर कछुकी कछु भई, चढ़ी कालकी ताप ॥१०३०॥ केतक दिनमे मरि गये, यहै जगतको भाव । कालतें काहू न बचे, रानों होइ कि राव ॥१०३१॥
॥सवईया॥ जा दिनते चाहुवांन कलजुग प्रगटान्यों ता दिनते येते भूप ज्याइ कीने नये हैं। दत्तिको करन मति भौज सति हरचंद परदुख काटिबेकौ विक्रम ही भये हैं। हठको हमीर देव छाड़ी नहीं हठ टेव प्रथीराज बलको सुजस जगु छये है। दौलतखां जीवत हे राजा षट इनकै मरत
इनके मरत आज वैउ मरि गये है ॥१०३२॥ ॥ कवित्त ॥ प्रथम गंजि राठौर बहुरि भंजे कछवाहे ।
जहांगीरसौं बचन कहे ते भले निबाहे। बहुरि कांगरौ साध बलख खंधार सिधारे । कटक साहि अबास खेत चढ़ि बहुत संघारे । श्रीदौलतखां दीवांन तौ सप्तदीप नामी हुवौ । अस मरद मुछारको, कैसे के कहिये मुवौ ॥१०३३॥