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. [कवि जान कत धर्मराज कैसे कहूं, कौन धर्म यहु आहि । काटत असौ कलपतर, कृपा न उपजी काहि ॥१००४॥ मन भावन बिन तप्ततन, बढ़ी सु मेटै कोइ । असुवनि छाती छिरकिये, पै नां सीरी होइ ॥१००५।। ताहरखां बिनु चित्तकौ, चिता भई असंख । चन्द्रक्राति मन भाति नित, चुयो करत है अंध ॥१००६॥ सज्जन द्रुजन येक सम, करे सु भली न कीन। जीवत हित बनि सुख दयौ, मरि अनहित बन दीन ॥१००७॥ सज्जन द्रिग अरहट घरी, भरि २ ढरिरे जाहिं । दुर्जन विहसत फिरत है, दसन अधर रस मांहि ॥१००८।। ताहरखां या देसमैं, येक बार फिर आव । सज्जन द्रुजन को अबहि, है परखनको दाव ॥१००६॥ मरि कर आयो देसमै, घर २ उपज्यौ सोग । औसी बिधक मिलनमै, क्यों सुख पावें लोग ॥१०१०॥ दुर्जन सौ नाहिन झुके, कीया न सज्जन प्यार । काहू तन चित यो नही, रचक नैन उधार ॥१०११॥ देखत ही ताबूतको, रोर परी पुर मांहि । कौन नींद सूते मियां, तौऊ जागे नांहि ॥१०१२॥ येक बार जियकी कथा, सुनी न प्यारे आइ। मनकी मनही मै रही, बिधु सौ कछु न बसाइ ॥१०१३।। सीत पवन लू घाम घन, सहै रहै दुख मांहि । जांनहि जिन सिरतें गई, कल्प ब्रिछकी छांहि ॥१०१४॥
॥सवैया ॥ काल कौ तौ नाम कालकूटते कटुक लागै ताहरखां सौ कलपतर जिन दाह्यौ है। रतननिको समुद्र पल मै सुखाय डार्यो मिटत न काहू भांति करता जु चाह्यौ है।