________________
[कवि जान कृत ताहरखां तुव तेगकी त्यागकी फैली कीरति दीपनि सातै । दानके वीज धरा रसना कविनीके वये जसके बिखाते ॥९७९।। दुरजनसाल मरद मुछाल है ताहरखॉ तरवारको रावत । कूरम धूरमे डारे मिलाइ के सिघ हुते तेऊ गाइ कहावत । वंक रह्यौ नही बीकनिमै अरु पाइ लगे तजि बाद बिद्रावत ।
दौलतखानकों नंद नरिद, अनंद भयौ अति देसमें आवत ॥९८०॥ ॥ दोहा ॥ जैगढ़में डेरौ कीयौ, अमरसिघके धाम ।
हिमतकै बर जगतमे, कीनौ अपनौ नाम ॥९८१॥ सुखमे मास चतुरं गये, आये दौलतखान । पूत पिता दोऊ मिले, अति सुख उपज्यो प्रान ।।९८२॥ जुगल रहत नागौरमे, वाढ्यौ हर्ष हुलास । मुंछारनकी मानि है, सीवारी सब त्रास ॥९८३॥ सात आठ ही मास लौ, रहे उतहि दीवांन । पुनि आयो पतिसाहकी, जैसी बिध फुरमांन ॥९८४|| बांचत ही फुरमांनकै, ना रहियों नागौर । अब तुम गहर निवार के, वेगे जाहु पिसौर ॥९८५॥ उतते सहिजादौ चलै, बलख लैनके चाइ । तब तुम उनके संग है, फतिह कीजियहु जाइ ॥९८६॥ तब दीवांन उतको चले, मियां रहे नागौर । आठ मास बैठे रहे, सुखसौ वाही ठौर ॥९८७॥ फौज चलाई बलखकू, सुनी मिया नागौर । छत्रपतिको पठई अरज, जै पुहची लाहौर ॥९८८॥ तामै असै लिख्यौ हौ, सुनिये सहनसाह । मोहूको जो हुकम है, तो आऊं दरगाह ॥६८६॥ येउ तबहि बुलाइ के, दीने वलख पठाइ । लघु साहिजादै कटक लै, फतिह करी है जाइ ॥६६०॥