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[कवि जान कृतः
तीजै दिन आये बहुरि, दल बल साज अपार । जैत भई दीवांनकी, गये पहारी हार ॥८७३॥ बहुरी आये भोमियां, चौथे दिन दल साज । मार परी तब मरि परे, उबरे गये जु भाजि ॥८७४॥ फिर आये दिन पाचवें, जूझ करनकै चाइ। मिटे पहारी खेत ते, अंत होइ घन घाइ ।।८७५।। बहुर छठे दिन आइ के, नीकी बाही रार। हाथ लगाये अलफ खां, अंत चले वै हार ॥८७६।। सादक खां पैठांन हौ, चीठी दई पठाइ। के दल मोपै पठइयो, के तुम मिलियो आइ ॥८७७॥ रोस होइ दीवांननै, तब दल दयो पठाइ । दुर्जन उतो सांम है, हौं क्यौ छांडौ पाइ ।।८७८।। चित नही रंन मरन की, सुजस रहै संसार । जो जिय गयौ तौ जान दे, रज राखे करतार ॥८७६। सुनी बात यहु जगतसिघ, दल थोरे दीवांन । ठटु कटकनिके साजकै, चढ्यौ देत नीसांन ॥८८०॥ खरे भये दीवांन चढि, तलवारैके खेत-। संपूरन रज लाज के, साहस सत्त समेत ॥८८१॥ अनी तीन कीनी तबहि, अलिफखांन भोपाल । येक वोरको रूपचंद, इक बासो डढवाल ॥८८२॥ बीच भये दीवांन जू, चित लरिबेको चाइ। रज अपनी नां जान दे, जौ जिय जाइत जाइ ॥८८३॥ घरो कर्यो पहारीयों, कटत अपार अनंत । आडौ आये घूमते, मद बहते मैमत ।।८८४॥ जुध भयो अतिहि प्रवल, परयो महा घमसांन । कोरी पांडौसे लरे, के कीचकको घांन ।।८८।।