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क्याम खां रासा- भूमिका तत्क्षण अपने श्राप बनती चली जाती है, न तो इसे उसके लिए कुछ सोचना पडा है और न कोई परिश्रम ही करना पड़ा है। कथानककी रूप रेखा इस कविके केवल संकेत मात्रसे ही भरती चली जाती है और कुछ कालमे एक प्रेमगाथा प्रस्तुत हो जाती है । फिर भी इसकी रचनाएँ केवल तुक बन्दियां नहीं कही जा सकतीं । उनके बीच २ में कुछ ऐसी सरस पंक्तियाँ आ जाती हैं जो किसी भी प्रौढ़ एवं सुन्दर काव्यका अङ्ग बन सकती हैं, और उनकी संख्या किसी प्रकार भी कम नहीं कही जासकती।
इस कविने पात्रोंके चरित्र-चित्रण तथा घटना-विधानमें भी कभी-कभी अपना काव्य कौशल दिखलाया है और कोई न कोई नवीनता ला दी है। ]
रावत सारस्वत द्वारा प्राप्त सूचीमें 'रस कोष' का रचनाकाल सं० १६६७ लिखा हुआ था, उसी आधारसे राजस्थान भारतीमे प्रकाशित अपने लेखमें, मैंने उसे सर्वप्रथम रचना बतलाई थी। श्रीयुत परशुराम चतुर्वेदीने सूफी काव्य संग्रहके पृष्ठ १३९-४०में उसीका अनुकरण किया है। पर मेरे लेख छपनेके पश्चात् सं० १६८४ जेष्ठ वदीमे कवि भीखजनके फतहपुरमे लिखित प्रति अनूप संस्कृत लाइब्रेरीमें अवलोकनमें श्राई । जिससे इस ग्रन्थका वास्तविक रचनाकाल १६७६ सिद्ध होता है । यथा
"जहांगीरके राज्यमें हिरन चित्त को दोष।।
सोलहसै षट हुतरै, कियो जान रस कोष ॥"१४१। चौ. ५० प्रस्तुत ग्रन्थ, रसमंजरीकी भाँति नायक नायिकाके वर्णन वाला है।
"अबहि बखानौ नाइका नाइक कहि कवि जान । मयूं कy रसमंजरी सुनो सवे धर कान ॥३॥ ग्रन्थका परिमाण ३०० श्लोकोंका है।
कविका गुरु कविने हाँसीके शेखमोहम्मद चिस्तीको अपना गुरु बताया है । शेखमुहम्मद मेरो पोर, हाँसी ठाम गुनीन गंभीर । शेखमुहम्मद पीर हमारो, जाको नाम जगत उजियारो ।
रहन गाँव जानहु तिहँ हॉसी, देखत कटे चित्त की फांसी । कविवल्लभ एवं बुद्धिसागर प्रन्यमे पीर मुहम्मदके ४ पूर्वज कुतवाँ १. जमाल २. बुरहान ३. अनवर एवं ४. नूरदीके भी नाम दिए हैं । यथा
"कुतव भय न इनके कुलचार, तिनको जानत सव संसार। पहले जानहुँ कुतव जमाल, जिहि तन तक्यो सु भयौ निहाल ॥३॥ दूजै भयौ कुतुब बुरहान, प्रगट्यो जाको नाम जहान । कुतव अनवर दादौं भयो, जिनकी छत्रपति नयौँ । कुतब नूरदी नूरजहान, प्रगट भयौ जग जैसे भान । हाँसीमें इनको विसराम, जियारत करे सरै मन काम ।