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[ कवि जांन कृत
चोवा नाहरखानकै, निकसत उत्तिम श्राहि । बास मगन ह्वै रीझिकें, मांग लयो पतिसाहि ॥ ५८७॥ महलको सबता
॥ दोहा ॥ अपने मनकी वैसौ जगमै पंद्रह से जु तिरानुंवै, महल रच्यो दीवांन । भादौ सुदि आठे हुती, सोमवार कहि जांन ॥ ५८६ ।।
उकत सौ, महल चिनायो येक । और नां, घन दीवॉन बिवेक ||५८८||
नाहरखांनै जगमाल पंवार भजायो
नागौरी खां पर चढ्यो, राना दल बल साज । इनहू सुनि मांडे चरन, ही आगेकी लाज ॥ ५६० ॥ कूरम कमधज सकल ही, मांनत खांकी आन | दिल्लीकों जानत नहीं, बदत न मुगल पठान ॥५६१ ॥ आये गांगा जैतसी, सूजा पिर्थी राज ।
करि साज || ५६२||
और भोमिया निकटके, सब आये नागोरी चिट्ठी लिखी, टेरे रानैको प्रवन सुन्यौ, नीकी सैन बनाइ कै, निकट गये नागौरर्क, उतहि जाइ से सुन्यौ, नागोरी गढ़ मांहि । रानौ बाहर कोस पर, निकसि लरत है नांहि ॥ ५६५॥ रिस उपजी चहुवान चित, नां पैठ्यौ नागौर । तीन कोस आगे गयो, सुभटनिकौ सिरमौर ॥ ५६६ ॥ खां सुनि पाई बात यहु, मानस दयो पठाइ । चले अकेले तुम कहां, हमपे उतरौ आइ ॥ ५६७॥ नाहरखां तव यों कह्यौ, रानौ उतर्यो पास । वोट गही तुम कोटकी, नाहिन लेत निकास ॥ ५६८ ॥
नाहरखांन ।
चढ्यो तंत चक्रवती
चहुवांन ।
देत जैत नीसांन || ५६४||
दीवांन ॥ ५९३ ॥