SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 64
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सकती है, जिसमें मग्न यह सांधक जगत्के वैभव, यश और कीर्तिके आवरणोंके उस पार सत्यकी ज्योतिको अपने सुदृढ़ हाथोंमें थामे हुए ज्योतिसे ज्योति जलाता हुआ अनासक्त चला जा रहा है। 'चरैवेति चरैवेति 'का जीता जागता निदर्शन यह उसी ज्योतिके बल पर दृष्टि-कान्तारको पार कर अन्तिम जीवनके अमूल्य क्षणोंमें सचमुच शीतीभृत और शान्त हो नई पीढ़ीकी उषा-लालिमासे प्राण और जीवन पानेकी आशा वटोरे हुए आज भी चला ही जा रहा है, चला ही जा रहा है। __जहाँ उनके जीवन में एक ओर यह साधना और उपादानकी अमर-ज्योति प्रज्वलित हुई है वहीं उसी परिमाणमें किसीके अन्याय और अपमानको न सहनेका तीक्ष्ण तेज भी भासमान है। वे माघके इस श्लोकको कितनी दृढ़ता और आत्मचेतनासे पढ़ते है कि सुननेवाले शवप्रायमें भी एक बार निर्भयता और चेतना भमक उठती है_ 'मा जीवन् यः परावज्ञादुःखदग्धोऽपि जीवति । तस्याजनिरेवास्तु जननीक्लेशकारिणः ॥' -जो दूसरेके अपमानके दुःखमें जलता हुआ सिसकता है उसका न जीना ही अच्छा है। माताको क्लेश देनेवाले उस पामरका जन्म ही नहीं हुआ होता. तो अच्छा था। . स्पष्ट और सयुक्ति किन्तु नम्र शब्दोंमें अन्यायका प्रतिवाद करना पण्डितजीका अपना स्वभाव ही बन गया है; और इस तरह एक ओर जहाँ सत्यकी साधना और न्यायकी उपासनासे उन्होंने मानवताके मन्दिरको आलोकित किया है, वहाँ असत्यका प्रतिवाद और अन्यायका निराकरण करके कंटकशुद्धि भी की है और नई पीढ़ीको उस मन्दिर तक जानेकी पगडंडी तो अवश्य ही बना दी है। पंडितजी अन्यायके प्रतिकार या असत्यके प्रतिवादमें 'वज्रादपि कठोर' होकर भी साथी, पड़ौसी और संपर्क में आनेवाले व्यक्तिके सुख-दुःखमें 'कुसुमादपि मृदु' हैं। कितने व्यवहारज्ञ और कोमल हृदय हैं वे इसका एक प्रसङ्ग मुझे वरावर याद है। मेरी पत्नी सुशीला एक बार वीमार पड़ी और पंडितजी उसे देखने आये, तो मैंने उसकी इच्छानुसार पंडितजीको मौसंवीका रस पीनेको निकाला। हम सबके अत्यन्त आग्रह करने पर भी पंडितजीने वह रस नहीं पिया और यही एक वाक्य कहा कि 'यह तो वीमार के लिये है।' कौन इतना सूक्ष्मः विचार करता है और व्यवहाररुक्ष वनकर भी उसे निभाता है ? वे अपने निश्चयके पक्के हैं। दूसरेका कमसे कम अवलम्बन लेनेकी उनकी वृत्ति इतनी पक गई है कि कभी कभी निकटके साथियोंको भी फीका लगने लगता है।
SR No.010642
Book TitlePandit Sukhlalji Parichay tatha Anjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandit Sukhlalji Sanman Samiti
PublisherPandit Sukhlalji Sanman Samiti
Publication Year1957
Total Pages73
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy