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________________ अनयन नेता पं० श्री महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य 'ज्ञानोदय'का सम्पादन करते समय मैंने श्रद्धेय पंडित सुखलालजीके संक्षिप्त परिचयमें 'अनयन नेता' शब्द लिखा था। सचमुच पंडितजीका किसीने अपने पीछे नयन नहीं किया, वे किसी परम्परा विश्वास या विचारके दास नहीं वने । उन्होंने उन्मुक्त मनसे, प्रत्येक विचारकी ऐतिहासिक विकासभूमि जानी और कालचक्रकी अनवरत परिवर्तनधारामें उस विचारकी शाश्वत रूटताकी थाह ली। मनुष्यको पूर्वजन्मके कर्मवन्ध जो भी रहते हों, पर इस जन्ममें वह मातापिता, कुटुम्ब, गुरु, शिक्षक, समाज आदिसे कुलाचार, धर्माचार, समाजाचार और देशाचार आदिके नाम पर जो प्राप्त करता है वे भी कम नहीं हैं। इन्हींकी पकड़ और जकड़से उसकी अन्तरात्मा अपना स्वत्व खोकर जडप्राय और यन्त्राल्ड जैसी बन जाती है। संस्कृतिके नाम पर इस नवनीतसम वालकको सब अपने अपने ढांचे और सांचे में ढालनेका संगठित प्रयत्न करते हैं। जो आता है, शिक्षा दीक्षा और संस्कारके रूपमें इसके मस्तिष्करूपी कोरे कागज़ पर अपने निशान बना देता है। मनुष्य जब बालिग होता है और कुछ सोचने-समझने लायक होता है, तो ये ही अगृहीत और गृहीत संस्कार उसके सामने खड़े हो जाते हैं। एक तो उसकी सोचने-समझने और करनेकी दिशा ही इन बद्ध संस्कारोंकी धारामें इतनी जकड़ी होती है कि उसे दूसरी वाजूके स्वतन्त्रभावसे विचारका अवसर ही नहीं आता। कदाचित् काललब्धि आ गई और इस प्रकारके सत्संग आदि मिल पाये तो ये इस जन्मके सारे बन्धन अपने पूरे वलसे उसकी सांसको ही रूंध लेते हैं। ऐसी ज्ञात-अज्ञात सहज या सांस्कारिक परिस्थितियों में विरले ही स्वयंवुद्ध होकर उन बन्धनोंकी जटाजालसे अपने जीवनको मुक्त कर ऊपर उठ पाते हैं। मुझे यह कहने में जरा भी संकोच नहीं है कि पंडितजी उन विरल साधकोंमें हैं जिन्होंने अपनी पूरी अन्तःशक्तिसे इस दिशामें प्रयास किया है और इस वन्धनमुक्तिका आनन्द पाया है। उनके मुक्तमनसे सिद्धसेन दिवाकरका यह वाक्य कितना प्यारा और जानदार लगता है 'मृतरूढगौरवादहं न जातः प्रथयन्तु विद्विषः ।' -~-पुरानी कब्र पर केवल फूल चढ़ानेके लिये मैंने जन्म नहीं लिया है। इससे यदि हमारे विरोधी बढ़ते हैं तो वढ़ें। दिवाकरकी इस ज्योतिमें वे वरावर बढ़े चले और उसका परिनिष्पन्न फल भी अपने इसी जीवन में पा सके । उस निर्मुक्त आनन्दकी क्या उपमा हो
SR No.010642
Book TitlePandit Sukhlalji Parichay tatha Anjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandit Sukhlalji Sanman Samiti
PublisherPandit Sukhlalji Sanman Samiti
Publication Year1957
Total Pages73
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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