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________________ लिये यात्रा कर रहे हैं। मेरे मन पर उस समय उनके व्यक्तित्वकी जो छाप पड़ी वह अमिट है । में नहीं जानता कि और कितनोंको भी उनके इस प्रकारके रसपूर्ण व्यक्तित्वका मधुमान् अनुभव प्राप्त हुआ होगा । मैंने इसे अपना सौभाग्य ही माना कि उन्हींके सभापतित्वमें में 'प्राचीन भारतीय लोकधर्म' पर अपने व्याख्यान सुना सका । उस समय भी उन्होंने जिस हृदयकी महत्ताका परिचय दिया था और श्रोताओंको सविशेष रूपसे उक्त विषयकी ओर आकृष्ट किया था, वे मधुर संस्मरण मेरे मनमें निहित हैं । पण्डितजीने अनेक शास्त्रीय ग्रन्थोंका निर्माण किया है, पर उनके एक विशेष कार्यका मेरे मनने वरावर अभिनन्दन किया है । वह उनका सिद्धसेन दिवाकरकी द्वात्रिंशिकाओंके विषयमें अध्ययन है । कहा जाता है कि वत्तीसबत्तीस श्लोकोंकी बत्तीस द्वात्रिंशिकाएँ सिद्धसेनने लिखी थीं, जिनमेंसे २२ अभी तक उपलब्ध हैं । उनका मूल संस्करण कभी छपा था। आश्चर्य है कि सिद्धसेन जैसे महिमाशाली मस्तिष्ककी इन कृतिओंकी ओर विद्वानोंका ध्यान कैसे नहीं गया ? सिद्धसेन गुप्तयुगके न केवल गम्भीर दार्शनिक थे, किन्तु उससे भी अधिक वे संसारिणी प्रज्ञासे समन्वित व्यक्ति थे। मेरी कल्पना है कि व्यक्तित्वके जिस क्षीररसकी उपलब्धि हमें पण्डित सुखलालजीमें होती है उसीके नवनीतसे सिद्धसेनका स्वरूप निर्मित हुआ था। उनकी द्वात्रिंशिकाओंको पढ़ते हुए मेरे मनमें उनके विषयमें विचित्र कल्पनाएँ आई हैं। श्री० पण्डितजीकी दृष्टिने सिद्धसेनके उस पक्षको पहचान लिया और सन्मतिप्रकरणकी प्रस्तावनामें उन सवका परिचय देनेके अनन्तर उनमसे एक द्वात्रिंशिकावेदवादद्वात्रिंशिकापर भाष्य लिखकर उस महान् आचार्यको पुनः हमारे दृष्टिपथमें लानेका उपक्रम किया है। ___मनुष्यके शतसांवत्सरिक जीवन में आयुष्यका भाग वही मानना चाहिए जिसमें सोद्देश्य कर्मकी आराधना की गई हो । पण्डितजीका जीवन उसीका निदर्शन है । विश्वके दिव्य कोपमें जो आयुष्य रूपी अमृत है, उसका शतधार प्रवाह पण्डितजीको प्राप्त हो यही ईश्वरसे प्रार्थना है-- "आयुरस्मासु धेहि, अमृतत्वम् आचार्याय ।" " आचार्य अमर हों-ज्ञान अमर हो, उसे अमर बनानेके लिये शिष्योंकी कड़ियां जुड़ती रहें ।
SR No.010642
Book TitlePandit Sukhlalji Parichay tatha Anjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandit Sukhlalji Sanman Samiti
PublisherPandit Sukhlalji Sanman Samiti
Publication Year1957
Total Pages73
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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