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________________ महापाज्ञ पण्डित सुखलालजी डा० वासुदेवशरण अग्रवाल पण्डित मुखलालजीका स्मरण करते हुए एक संमानित विशेपण जो मेरे मनमें आता है वह ‘महाप्राज्ञ ' है । वे सर्वथा प्रज्ञाके रूप हैं, भीतर-वाहर दीर्घ प्रज्ञासे ओतप्रोत हैं । प्राचीन उपनिषद् युगमें प्रज्ञा शब्द पर विशेष ध्यान दिया गया था । जीवनकी जो व्यवहारपरायण कुशल वुद्धि है उसे प्रज्ञा कहते थे। अपने निजी विचारों और कर्माम संतुलन प्रज्ञाका लक्षण है। दूसरोंके कर्मोमें व्यवहारवुद्धिसे और हिताकांक्षासे सहयोग और सहायता देना प्रज्ञाका लक्षण है। प्रज्ञावान् व्यक्ति संसारके व्यवहारोंको छोड़ता नहीं; उनमें भरसक वुद्धिकौशलसे प्रवृत्त होता है। उसके प्रत्येक कार्यमें उत्साह और श्रद्धाका वीज रहता है । इस प्रकारकी प्रशस्त बुद्धिमत्ता जिस व्यक्ति में हो उसे हम प्राज्ञ या प्रज्ञावान् कहेंगे। आजकल जिसे समझदारी या हृदयके आर्जवभावसे युक्त विचार और कर्मकी कुशलता कहते हैं वही प्राचीन परिभाषा में प्रज्ञा कही जाती थी । प्रज्ञाको ही मागधी या पालि भाषामें 'पञ्जा' और अर्धमागधी बोलीमें 'पण्णा' कहा गया । हमारा अनुमान है कि उसीका रूप किसी. जनपद विशेषकी वोलीमें, संभवतः कुरु जनपदके क्षेत्रमें, 'पण्डा' हुआ । जैसे प्रज्ञासे युक्त प्राज्ञ, वैसे ही पण्डासे युक्त व्यक्ति ‘पण्डित' इस पदवीका अधिकारी हुआ । सच्चे अर्थमें पण्डित होना जीवनकी महती प्रतिष्टा और सफलता है । दैवयोगसे यह संमानित पदवी श्री० सुखलालजीके नामके साथ लोककी अन्तःप्रेरणाको व्यक्त करती हुई स्वतः जुड़ गई है, जिसमें उनके विशाल सरस व्यक्तित्वकी अर्थवती झाँकी मिलती है ।। श्री० सुखलालजी व्यक्ति नहीं, संस्था हैं । उनके शरीरका गोत्र और नाम जो भी हो, उन्होंने अपना सारस्वत गोत्र वना लिया है। जहाँ जहाँ सरस्वती या शारदाकी सच्ची उपासना की जाती है, वहीं श्री० मुखलालजीके मनको रस मिलता है । जहाँ ज्ञान और विद्याकी चर्चा है, जहाँ संस्कृति और कलाकी साधना होती है, उस ब्राह्म-सर में श्री० मुखलालजी अभिषेक करके गद्गद् हो जाते हैं। उनके मनमें अभिनिवेशकी सीमाएँ नहीं, न किसी प्रकारका पूर्वाग्रह है । उनका मन उदार है । मैंने आज लगभग बीस वर्पोमें जवसे उन्हें जाना है, उनके इसी स्वभाव और स्वरूपको सकुशल देखा है । उनके भीतर प्रेरणाका स्रोत कैसा अक्षय्य है, इसकी कल्पना वह व्यक्ति
SR No.010642
Book TitlePandit Sukhlalji Parichay tatha Anjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandit Sukhlalji Sanman Samiti
PublisherPandit Sukhlalji Sanman Samiti
Publication Year1957
Total Pages73
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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