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________________ ३० द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - १) [२८] कलकत्ता १४-७-१९६२ श्री सद्गुरुदेवाय नमः आत्मार्थी धर्मस्नेह । पत्र आपका मिला, इससे पहले एक पत्र यहाँ लग्नके समय मिला था, जिसका जवाब भी दिया था। इस मध्ये तो कोई पत्र मिला नहीं। हर पत्रमे मेरे वहाँ आनेके लिये स्वाभाविक रागवश आपका अनुरोध रहता है व न आनेके लिये बहुत प्रकारका उलाहना व उपदेश भी। मेरे परिणामोकी स्थिति समय-समयकी लिखी तो नही जा सकती; इतना ही कह सकता हूँ कि बिना रसके भी परिस्थितिवश लाचारीसे ही इधरके अशुभउपयोगोंमें रहना होता है । मेरी भूमिकामे अशुभउपयोगकी ही अधिकता है, स्थिरता के प्रयत्न समय भी; अधिक क्या लिखू ? ध्रुव आत्मा तो परिणामोमे भी किचित् उथल-पुथल नही कर सकता । ध्रुवमे श्रद्धाकी यथार्थ व्यापकताका यह नियम श्री गुरुदेवने बताया है, वह सही है, समझमें भी है। रागको इधर करो, उधर करो आदि तो परिणामोपर अस्तित्व समझनेवालोके लिये मुख्यतः अपेक्षाओके कथन है । परिणाम शुभ है, अशुभ है, इनमें कितना पुरुषार्थ भी सहज लग जाता है आदि ध्रुवकी एकता सहितके ज्ञानमें आता रहता है । श्रद्धाकी अखण्ड एकताके साथ ही चारित्रकी अखण्डता भी ध्रुव के साथ हो जाये, यह ही लक्ष्य है; व यथार्थ श्रद्धाके साथ ऐसा ही होगा, यह ही नियम है । इसके हुए बिना, मात्र ऐसा हुए बिना, जीवको चैन नही । अन्य तरफ़के रागमें निरन्तर रस नही, चाहे क्षणिक रस दिखाई भी दे । शुभ निमित्तोंके संगमे अधिक मन्द कषायादिक होनेसे स्थिरता भी अधिक व शीघ्र होती रहती है, यह भी ज्ञानमे है; परन्तु मुख्य संग तो निर्बाध अपराधीन चेतनका ही है, अन्य संग तो उदयाधीन है । अधिक लिखनेमे सार नही । उधर आनेके विकल्प भी बहुवार उठते हैं पर अधिक ज़ोर नही खाते । आपके पत्रोके मात्र उधर आने वावत लिखे होनेका,
SR No.010641
Book TitleDravyadrushti Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVitrag Sat Sahitya Prasarak Trust
PublisherVitrag Sat Sahitya Trust Bhavnagar
Publication Year
Total Pages261
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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