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द्रव्यदृष्टि-प्रकाश ( भाग - १ )
कलकत्ता
१०-११-१९५३
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ॐ
श्री सद्गुरुदेवाय नमः
पवित्र आत्मार्थी
आप दोनोका लिखा हुआ कार्ड कल रात्रि मिला । सोनगढ़का पत्र देखते मात्र ही हृदय कैसा डोल उठता है, व्यक्त करनेमे असमर्थ हूँ। वहॉकी स्मृतियो बिना कोई दिवस नही गुजरता । आपके अन्तरंगको भली प्रकार समझता हूँ, फिर भी पत्रादिककी प्रवृत्तिमे मन संकुचित-सा रहता है अतः उत्साहवर्द्धक पत्र नही लिखा जा सका था ।
कुछ समय से यहाँके दिगम्बर जैन मन्दिरजीमे रात्रिको एक घन्टे मुमुक्षु भाइयोके साथ शास्त्रस्वाध्याय होती है । पूज्य श्री गुरुदेवकी शारीरिक अस्वस्थता व स्वस्थताके समाचार समय-समय पर उन भाईयोके पास वहाँके पत्रादिक आते थे उनसे मालूम होते रहते थे । परम-परम हर्ष है कि परम अद्भुत, जीवन उद्धारक, जन्म-मरणरूपी रोगसे रहित करनेवाले योगीराज श्री सद्गुरुदेवका स्वास्थ्य अब बिल्कुल ठीक है । अनादि-अनन्त आयुके धारक चैतन्य गुरुदेवकी देह भी दीर्घायु होवे, ऐसी भावना है ।
बाह्यप्रवृत्ति व संयोगोसे इच्छा (राग) का माप नही होता व इच्छासे निरीच्छुक सूक्ष्म अभेदवृत्तिका माप नही होता । इच्छा होते हुए भी पुण्ययोग बिना क्षेत्रान्तर नही होता । वहाँ आने-जाने आदिके वायदे निश्चय निहाल भाईके नही समझो। निश्चय निहालभाई तो अनादिसे कही आये गये ही नही, न अब अनन्तकाल कही आने-जानेवाले ही है । न कभी किसीको वायदा किया ही था न करनेवाले ही है । वायदे व आने-जाने आदिका कार्य सब जड़ाश्रित जड़का ही है, चेतन निहालभाईका नही । चेतनने तो इस ही के कहलाये जानेवाले रागसे भी कभी निमित्तरूप सम्बन्ध तक नही किया तो अन्य क्रियाओ व वायदोमे तो इसका सम्बन्ध देखना वृथा है । हे प्रभो ! सर्व जीव सर्व सम्बन्धोसे रहित मात्र सामान्य चेतनमे ही अपने