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द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - १) रहे, भिन्न पडता रहे व ऐसी दृष्टिका अभ्यास निरन्तर बढ़ता रहे, यह ही भावना है।...
धर्मस्नही निहालचन्द्र
कलकत्ता
५-७-१९५३ धर्मप्रेमी से निहालचन्द्रका धर्मस्नेह ।
कार्ड आपका मिला । पूर्व पत्र कुछ चिन्तित दशाके समय लिखा गया था, अतः शायद आपको कुछ ख़याल-सा हुआ दिखता है।
जिस सामान्य ध्रुवस्वभावमे चिन्ता व अचिन्ता - दोनो ही पर्यायका अभाव है, उसके आश्रय पश्चात् वेचारी अल्प चिन्ताकी स्थिति ही कितनी ? ____ पूज्य गुरुदेवश्रीकी अनुभवरससे भीगी हुई वाणी वहाँ 'कर्ता - कर्म अधिकार'की वर्षा कर रही है - अहा ! आपकी इस हार्दिक भावनाका मै हृदयसे स्वागत करता हूँ कि मै भी आप सबोंके संग इस वर्षामे स्नान कलें। ___ अरे विकल्प ! यदि तुझे तेरी आयु प्रिय है तो अन्य सबको गौण कर व गुरुदेवके संगमे ले चल, वरना उनका दिया हुआ वीतरागी अस्त्र शीघ्र ही तेरा अन्त कर डालेगा।
स्वसंग, गुरुसंग व मुमुक्षुसंगके अलावा दूसरे संगको नही इच्छते हुए भी, अरे प्रारब्ध ! विषतुल्य संगमे रहना पड़ रहा है, खेद है।
पूर्ण चेष्टा है, शीघ्र योग मिलते ही वहा आऊँ; परन्तु अभी कोई नजदीक समय दिखाई नहीं देता है, फिर भी प्रयत्न पूरा है। सबोको यथायोग्य ।
धर्मस्नेही निहालचन्द्र