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________________ द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - ३) तो सब सहज ही सहज है । परिणामका चश्मा [ पर्यायमे 'मै-पना' ] लगाया हुआ हो तो (स्वयं) परिणामरूप ही भासता है, अपरिणामी नहीं भासता । १९८. 'मै अधिक हूँ' - यही स्वयंका महात्म्यभाव है । 'मैं' कोई भी भावमे-विकल्पमे खिसकता नही, तणीजता (खींचिजता) ही नही, वैसा का वैसा और वही का वही हर समय रहता हूँ विकल्पके साथ, परिणामके साथ, खिसकता ही नहीं हूँ। क्या दर्पणका दल क्षणिक आकारमे खिसकता है (आता है) ? - वैसाका वैसा ही रहता है। ऐसे ही, 'मैं भी सदा वैसा का वैसा रहता हूँ। १९९. कहाँ एक समयका भाव...और कहाँ त्रिकाली सामर्थ्य !! त्रिकाली सामर्थ्य के पास एक समयके भावकी क्या शक्ति ? २००. यह बात समझमे आने पर 'क...क'का बोझा तो हल्का हो जाए; परन्तु इस त्रिकाली-अपरिणामीभावका अनुभव होना - यही ख़ास बात है; यह अनुभव करो । २०१. [चर्चा सुननेवालोके प्रति ] यहाँ वाले सभीकी लगनी तो अच्छी हो गयी है; लेकिन यहॉकी मुख्य बात कि - 'हमारा लक्ष्य छोड़ो' - यह बात छोड़ी नही जाती। [ मानते होगे कि, ] तुम ऐसी अच्छी बात बताते हो तो तुमारा लक्ष्य कैसे छोड़ें, तुमारी सन्मुखता कैसे छोड़ें ? लेकिन असलमें तो अपनी सन्मुखता बिना यह बात समझने नही आती । २०२. अरे भाई ! 'तू' एक समयकी पर्यायमे आ नही जाता है। 'तू' तो अनन्ती पर्यायोंका पिण्ड है। यदि 'तू' एक पर्यायमे आगया तो अन्य सभी पर्यायें विधवा हो जायेंगी । २०३.
SR No.010641
Book TitleDravyadrushti Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVitrag Sat Sahitya Prasarak Trust
PublisherVitrag Sat Sahitya Trust Bhavnagar
Publication Year
Total Pages261
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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