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________________ तत्पपर्या ११५ ___ 'वर्तमानमे ही कृतकृत्य हूँ' - ऐसी दृष्टि अपनी वस्तुमे हुयी, तो करूँ...क - ऐसी कर्तृत्व बुद्धि छूट गयी...बस ! यही मुक्ति है। १९१. 'अपने सुख-धाममे सदा जमे रहना' बस ! - यही बात बारह अंगका एकमात्र सार है । १९२. दृष्टि खुले विना शास्त्रका अर्थ भी यथार्थरूपसे खतिया नहीं सकते। खतियानेमे इधरकी [- आत्माकी ] मुख्यता कभी गोण नही होनी चाहिए; इघरकी मुख्यता कायम रखकर ही सब कथन खतियाने चाहिए । १९३. ज्ञानीको भी क्षणिक विकल्प उठते है लेकिन पूर्वकी [ अज्ञानदशाकी ] माफ़िक [ विकल्पमे ] अनन्त ज़ोर नही है । विकल्प उठते है, किन्तु पछाड़ खाकर ख़त्म हो जाते है । १९४. [ परिणतिम ] सहज सुखका अनुभव [ रागके ] साथ-साथ वर्तता ही है, इसीलिए ज्ञानी हर्षभावको भी प्रत्यक्ष दुःखरूप जानते है । परन्तु जिन्हे सहज सुख प्रकट नही हुआ वे किसके साथ मिलानकर हर्षभावको दुःखरूप मानेगे ? १९५. जो आनन्दमे मस्त है, उसकी मस्तीमे आनन्दकी ही बात आती है। १९६. "शुद्ध बुद्ध चैतन्यधन स्वयं ज्योति सुख धाम" - कैसी सुन्दर वात श्रीमद्जीने की है ! एक पंक्तिमे सब बात आगई । बस, भाई ! तू इतना ही विचार [ ज्ञान ] कर । १९७. परिणामका कार्य परिणाम करेगा, तुम उसकी दरकार छोड़ो; तुम तो अपने नित्यघरमे ही बैठे रहो । अपने घरमे [ द्रव्यस्वभावमे ] बैठे,
SR No.010641
Book TitleDravyadrushti Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVitrag Sat Sahitya Prasarak Trust
PublisherVitrag Sat Sahitya Trust Bhavnagar
Publication Year
Total Pages261
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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