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________________ तत्त्वचर्चा १०१ [ खुदके परिणाम बताते हुए कहा ] निर्विकल्प आनन्दकी तो बात क्या करे !! विकल्पके समयमे भी सुख और शान्ति तो बढ़ती रहती है । फिर भी निर्विकल्प आनन्द तो इससे भी बहुत ऊँचे दर्जेका है; इस आनन्दमेसे छूटनेसे तो इतना दुःख ही दुःख होता है कि जैसा बर्फमे पड़ा हुआ बर्फ़से छूटकर अग्निमे प्रवेश करे तो जैसा दुःख होता है, वैसा निर्विकल्पमेसे निकलने पर होता है। (इसीसे ) तो निर्विकल्पमे जानेकी लगन रहती है । १२३. [ अगत ] आख़िर कितना भी सुन लो, लेकिन सुख तो यहाँसे [ अन्तरमे से ] ही शुरू होता है । [ सुनते ही प्रयास चालू होवे, वह पात्रता का लक्षण है ।] यह थोड़ा सुन तो लूँ... इसमे क्या नुकसान है ?... पीछे अन्दरमे जाऊँगा, [- इस प्रकारके परिणाममे स्वभावकी अरुचि है । ] यह बात ठीक नही है; और एक समयकी ज्ञानपर्यायमे विचार कर-करके भी क्या मिलेगा ? त्रिकालीकी ओर ज़ोर देनेसे ही क्षणिक पर्यायकी एकता छूटकर सुख मिलेगा । १२४. ܀ प्रश्न :- वर्तमान ज्ञानवेदन ख़यालमे आता है वैसे त्रिकाली सत् ख़याल क्यो नही आता है ? उघाड़मे तो युक्ति आदिसे आता है लेकिन अन्दरसे ख़यालमे क्यो नही आता ? उत्तर :- जो उघाड़मे न्यायसे ख़यालमे आया, तो ( वो) ख़यालवाली ज्ञानपर्याय भी तो कोई आधार पर खड़ी है; तो वह आधारवाली वस्तु क्या है ? ऐसे देखकर, उस आधारवाली शक्तिमे ही ग्रॅम जाना - प्रसर जाना, वो ही सत् स्वभाव है । [ त्रिकाली स्वरूपमात्र खयालमे लेना है - ऐसा अभिप्राय नही रखकरके, अन्तरमे त्रिकाली आधारभूत शक्तिको स्वयके रूपमे देखनेका प्रयास करना चाहिए। जिससे सहज स्थिरता होगी । ] १२५. - * ये (चार) गतियोकी बात तो बहुत स्थूल है । यहाँ तो 'सिद्ध-गति -
SR No.010641
Book TitleDravyadrushti Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVitrag Sat Sahitya Prasarak Trust
PublisherVitrag Sat Sahitya Trust Bhavnagar
Publication Year
Total Pages261
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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