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द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - ३)
विकल्पकी भूमिकामे भी (जिसको) निर्णय नहीं होता, उसको निर्विकल्प निर्णय होनेका अवकाश ही कहाँ है ? ११८.
[खुदका परिणाम बताते हुए कहा ] इ...त...नी लगनी रहती है कि मैं कब एकान्तमे बैठू...एकान्तमे बैठनेकी लगन रहती है। फिर भी एकान्त नही मिले तो वैसे ही अन्दरमे एकान्त बना लेता हूँ । एकान्त न मिले तो इसके लिए तड़पता नही (आकुलित नही होता) । ११९. [ अगत ]
जैनदर्शन ही एक ऐसा है कि जो वीतराग होनेसे दूसरेको अपने समान बना लेता है, यह इसकी मूल विशेषता है। दूसरे मतवाले शिष्यको बहुत कुछ दे देवे, किन्तु पूरा तो नही देते, क्योकि वे कषाययुक्त है। १२०.
प्रश्न :- द्रव्यलिगी इतना स्पष्ट जानकर (भी) क्यो त्रिकालीमे अपनापन नही करता ?
उत्तर :- उसको सुखकी ज़रूरत नही है; क्योकि उसको एक समयकी उघाड़-पर्यायमे सन्तोष है, सुख लगता है; तो त्रिकालीको क्यो पकड़े ? [ जिसको वर्तमान पर्यायमे सतोष होता है, उसको दर्शनमोह तीव्र होता है । और जहाँ सतोष होता है वहाँ ही अटकना होता है, वहाँ दुख भी नही लगता । अत ऐसी स्थितिमे त्रिकाली स्वभावके प्रति पुरुषार्थ नही होता है । ] १२१.
असलमें तो (मिथ्यात्वमें) तीव्र दुःख लगना चाहिए । जो तीव्र दुःख लगे तो सच्चे सुख बिना सन्तोष हो नहीं सकता। दुःखकी वेदना, सुखको शोधे बिना रहती ही नही। १२२.