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ध्यान - शास्त्र
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मुनिके रूपमे श्लेष द्वारा उनका भी समावेश उसमे किया जा सकता है । इस विषय मे 'त्रिजगदधिका ' यह विशेषणपद खास तौरसे ध्यान मे लेने योग्य है, जो प्रस्तुत गुरुवोकी सारे विश्व मे उच्चस्थितिका द्योतक है । इस विशेषणसे वे अपने-अपने पदकी पूर्णताको प्राप्त होने चाहियें, तभी उनका ग्रहण यहाँ हो सकेगा ।
जिन जिनेन्द्रादि-गुरुवोका इस पद्यमे स्मरण किया गया है, उनके अन्य विशेषणपद भी खास तौरसे ध्यानमे लेने योग्य हैं, जो उनका तन्नामधारी पदाधिकारियोसे पृथक् बोध कराते हैं । जिनेन्द्रो - अर्हन्तोका एक ही विशेषण दिया गया है और वह है 'प्रशस्त - ध्यानाग्नि द्वारा घातियाकर्मोकी प्रकृतियोको भस्म करनेवाले ।' घातिया कर्मोकी मूल प्रकृतियाँ चार हैं-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अन्तराय - जिनकी आगमोक्त उत्तरप्रकृतियाँ क्रमशः ५, ६, २८, ५ हैं और उत्तरोत्तर - प्रकृतियाँ असख्य हैं । इन चारो घातिया कर्म प्रकृतियोका उत्तरोत्तरप्रकृतियो - सहित पूर्णत विनाश हो जाने पर आत्मामे अनन्तज्ञानादि-चतुष्टय-गुणोकी प्रादुर्भूति होती है और जिसके यह प्रादुभूति होती है वही वास्तवमे सर्वज्ञ होता है, जैसाकि ग्रन्थके द्वितीय पद्य में प्रकट किया गया है । 'जिन' तथा 'अर्हन्' नामके धारक कुछ दूसरे भी हुए हैं, परन्तु वे घातिकर्म-चतुष्टयको भस्म कर अनन्तज्ञानादि-चतुष्टयको प्राप्त करनेवाले नही हुए । अत इस विशेषणपदसे उनका पृथक्करण हो जाता है ।
सिद्धो के तीन विशेषण दिये गये हैं, जिनमे 'प्रसिद्धा. ' विशेषण प्रकर्षत - पूर्णत सिद्धत्वका द्योतक है, अपूर्ण तथा अधूरे सिद्ध जो लोकमे विद्या - मत्र - देवतादि किसी-किसी विषयको लेकर 'सिद्ध' कहे जाते हैं उनका इस विशेषणसे पृथक्करण हो जाता है ।