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तत्त्वानुशासन करके यह प्रार्थना अथवा भावना की गई है कि ये पच गुरु हमारे चित्तको पवित्र करें-उनके चिन्तन, ध्यान एव सान्निध्यसे हमारा हृदय पवित्र होवे । जो स्वय पवित्र होते हैं, वे ही अपने सम्पर्कद्वारा दूसरोके हृदयको विना इच्छा एव प्रयत्लके भी पवित्र करनेमे समर्थ होते हैं, उसी प्रकार जिस प्रकार अपने राग-द्वेप-कामक्रोधादि दोपोको शान्त करके आत्मामें शान्ति स्थापित करने. वाले महात्माजन शरणागतोके लिये शान्तिके विधाता होते हैं। जिन पच गुरुवोका यहाँ स्मरण किया गया है वे ऐसे ही पवित्रता. की मूर्ति महात्मा हैं, जिनके नाम-स्मरणमात्रसे हृदयमे पवित्रताका सचार होने लगता है, फिर सचाईके साथ ध्यानादि-द्वारा सम्पर्क-स्थापनकी तो बात ही दूसरी है, वह जितना यथार्थ एव गाढ होगा उतना और वैसा ही उससे पवित्रताका सचार हो सकेगा।
_ 'पचगुरवः' पदका अभिप्राय यहाँ केवल पांचकी सस्याप्रमाण गुरुव्यक्तियोका नहीं है, किन्तु पाँच प्रकारके गुरुवोका वह वाचक है, जिन्हे 'पंचपरमेष्ठी' कहते है। जैसा कि ग्रन्यमे अन्यत्र तत्रापि तत्त्वतः पंच ध्यातव्याः परमेष्ठिनः' (११६), 'तत्सर्व ध्यातमेव स्याद्ध्यातेषु परमेष्ठिस' (१४०) जैसे वाक्योंसे व्यक्त है, और वे अर्हन्त (जिनेन्द्र), सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधुपदोके वस्तुत अधिकारी हैं, जिनमेसे प्रत्येकको सख्या अनेकानेक है। इसीसे प्रत्येकका उल्लेख बहुवचनान्त-पदाक द्वारा किया गया है। और इसीलिये उक्तपदका आशय ग्रन्थकारक उन पांच गुरुवोका नहीं है जिनका प्रशस्तिमे 'शास्त्रगुरु तथा 'दीक्षागुरु'के रूपमे नामोल्लेख है । हाँ, आचार्य, उपाध्याय तथा
१. स्वदोष-शान्त्या विहितात्मशान्ति शान्तेविधाता शरण गताना ।
-स्वयम्भूस्तोत्रे, समन्तभद्र