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ध्यान - शास्त्र
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होता है तुझे अभी तक सुख-दुखके वास्तविक स्वरूपका पता
नही है ।
अब आचार्यमहोदय सुखके मोक्षसुख और सासारिक सुख ऐसे दो भेद करते हुए उस सुख-दुख के वास्तविक स्वरूपको बतलाते है
मोक्ष - सुख-लक्षण
आत्माssयत्त निराबाधमतीन्द्रियमनश्वरम् । घातिकर्मक्षयोद्भुत यत्तन्मोक्षसुख विदुः ॥ २४२॥
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' जो घातिया कर्मोंके क्षयसे प्रादुर्भूत हुआ है, स्वात्माधीन है - किसी दूसरेके आश्रित नही, निराबाध है - जिसमे कभी कोई प्रकारकी बाधा उत्पन्न नही होती, प्रतीन्द्रिय है - इन्द्रियो - द्वारा ग्राह्य नही - और अनश्वर है—कभी नाशको प्राप्त नही होता — उसको 'मोक्षसुख' कहते हैं ।'
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व्याख्या – यहाँ, सच्चे सुखका विवेक कराते हुए, मोक्ष-सुखका जो स्वरूप दिया है वह बहुत कुछ स्पष्ट है । घातिया कर्म ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय हैं, जिनकी क्रमश. ५, ६, २८, ५ उत्तरप्रकृतियाँ हैं और उत्तरोत्तर - प्रकृतियाँ असख्य हैं । इन सब कम प्रकृतियोका मूलोच्छेद होने पर आत्माके जो अनन्तज्ञानादि चार महान् गुण प्रादुर्भूत होते हैं, उन्ही मे अनन्तसुख नामका गुण भी है जो स्वाधीन है - स्वात्मासे भिन्न किसी भी इन्द्रियादि दूसरे पदार्थ की अपेक्षा नही रखता - और विना किसी विघ्न-बाधाके सदा स्थिर रहता है । यही घातिया कर्मो के क्षयसे उत्पन्न हुआ अनन्तसुख मोक्षसुख कहलाता है । इस सुखका 'आत्मायत्त' विशेषण सर्वोपरिमुख्य है, शेष सब विशेषण इसी एक विशेषण के स्पष्टीकरण- रूपये हैं । जो सुख स्वात्माधीन न होकर पराधीन है वह वस्तुत सुख न होकर दुख ही है । इसीसे