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________________ ध्यान-शास्त्र १५३ भावोसे भिन्न है-कभी उनसे तादात्म्यको प्राप्त नही होता हैज्ञानस्वभाव है और उदासीन है- वीतरागतामय उपेक्षाभावको लिए हुए है।' यस्मिन् मिथ्याभिनिवेशेन मिथ्याज्ञानेन चोज्झितम् । तन्मध्यस्थं निज रूपं स्वस्मिन्सवेद्यतां स्वयम् ॥१६॥ 'जो मिथ्याश्रद्धान तथा मिथ्याज्ञानसे रहित है और रागद्वेषसे रहित मध्यस्थ है उस निजरूपको स्वय अपने प्रात्मामें अनुभव करना चाहिये। व्याख्या-यहाँ भी स्वसवेद्य आत्माके स्वरूपकी कुछ सूचना की गई है और यह बतलाया गया है कि वह मिथ्यादर्शन तथा मिथ्याज्ञानसे रहित है और अपने मध्यस्थरूपको लिये हुए है, जो कि समता, उपेक्षा अथवा वीतरागतामय है। साथ ही इस रूप आत्माको स्वय स्वात्मामे देखने-जाननेकी प्रेरणा की गई है। इन्द्रियज्ञान तथा मनके द्वारा आत्मा दृश्य नही न होन्द्रियधिया दृश्यं रूपादिरहितत्वत । वितस्तिन्न' पश्यन्ति ते ह्यविस्पष्ट-तर्कणा. ॥१६६॥ 'रूपादिसे रहित होनेके कारण वह प्रात्मरूप इन्द्रिय-ज्ञानसे दिखाई देनेवाला नहीं है, तर्क करनेवाले उसे देखते नहीं । वे अपनी तर्कणामे विशेषरूपसे स्पष्ट नहीं हो पाते-उनके तर्क अस्पष्ट बने रहते है।' व्याख्या-पिछले एक पद्य (१६४) मे आत्माको आत्माके द्वारा देखनेकी जो प्रेरणा की गई है, उसे यहां स्पष्ट करते हुए बतलाया गया है कि वह इन्द्रियज्ञानके द्वारा दृश्य नहीं है, क्योकि १. मे स्त न ।
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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