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________________ १५२ तत्त्वानुशासन कर स्वसंवित्तिके द्वारा ही उसे जानना चाहिये ।' व्याख्या -- यहाँ यह बतलाया है कि स्वसवेदनमे ज्ञप्ति क्रियाको निष्पत्ति के लिये दूसरा कोई करण अथवा साधकतम नही होता । क्योकि वह स्वयं स्व-पर-ज्ञप्तिरूप है । अत करणान्तरकी चिन्ताको छोड़कर स्वज्ञप्तिके द्वारा ही उसे जानना चाहिये । स्वात्माके द्वारा सवेद्य आत्मस्वरूप हग्बोध-साम्यरूपत्वाज्जानन्पश्यन्नु दासिता । चित्सामान्य- विशेषात्मा स्वात्मनैवाऽनुभूयताम् ॥ १६३ ॥ ' दर्शन, ज्ञान और समतारूप होनेसे देखता, जानता और वीतरागताको धारण करता हुआ जो सामान्य- विशेष ज्ञानरूप अथवा ज्ञान दर्शनात्मक उपयोगरूप श्रात्मा है उसे स्वात्माके . द्वारा ही अनुभव करना चाहिये ।' व्याख्या - यहाँ जिस आत्माको अपने आत्मा के द्वारा ही अनुभव करनेकी बात कही गई है उसके स्वरूप - विषयमे यह सूचना की गई है कि वह दर्शन, ज्ञान और समतारूप होनेसे ज्ञाता, 1 दृष्टा तथा उपेक्षिता ( वीतराग) के रूपमे स्थित है और चैतन्यके सामान्य तथा विशेष दोनो रूपोको - दर्शन- ज्ञानको - लिए हुए है । कर्मभ्यः समस्तेभ्यो भावेभ्यो भिन्नमन्वहम् । ज्ञस्वभावमुदासीनं पश्येदात्मानमात्मना ॥१६४॥ 'समस्त कर्मज भावोसे सदा भिन्न ऐसे ज्ञानस्वभाव एव उदासीन ( वीतराग ) श्रात्माको श्रात्माके द्वारा देखना चाहिये ।' व्याख्या - यहाँ भी स्वसवेदनके विषयभूत आत्माके स्वरूपकी कुछ सूचना करते हुए उसे जिस रूपमे देखनेकी प्रेरणा की गई है वह स्वरूप यह है कि आत्मा सदा कर्मजनित समस्त विभाव 1
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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