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________________ ध्यान-शास्त्र १३५ व्याख्या-यहाँ माध्यस्थ्यके पर्याय नाम दिये गये हैं। इससे पूर्व पद्यमे ध्याताको ध्येयके प्रति माध्यस्थ्य धारणकी जो बात कही गई है वह इन सब शब्दोके आशयको लिये हुए समझनी चाहिये । इन उपेक्षा, वैराग्य, साम्य, नि स्पृहता, वितृष्णा, प्रशम और शान्ति शब्दोके द्वारा माध्यस्थ्यका विषय बहुत कुछ स्पष्ट हो जाता है। ये सब शब्द सज्ञाको दृष्टिसे भिन्न होते हुए भी अर्थकी दृष्टिसे वस्तुत. एक ही मल आशयको लिये हुए हैं। अतः इनमेंसे किसीका भी कही प्रयोग होने पर, प्रकरणको ध्यानमें रखते हुए, दूसरे किसी शब्दके द्वारा उसका स्पष्टीकरण किया जा सकता है। जो सजा-शब्द होते हैं वे अपने-अपने बाह्य अर्थको साथ लिये रहते है । जिन सज्ञा-शब्दोके बाह्यार्थ परस्पर में एक दूसरेके साथ अविनाभाव सम्बन्ध रखते है वे सब एकार्थ कहे जाते हैं। अथवा यो कहिये कि प्रत्येक वस्तुमे अनेक गुण, धर्म, शक्ति, विशेष या अश होते हैं, उन सबको एक ही शब्दके द्वारा व्यक्त नही किया जा सकता-शब्दमें उतनी शक्ति ही नही है । इसीसे विवक्षित गुण-धर्मादिको यथावसर व्यक्त करनेके लिये तत्तत् शक्तिविशिष्ट शब्दोका प्रयोग किया जाता है, यही एक वस्तुके अनेक नाम होनेका प्रधान कारण है। इसीसे उक्त नौ नाम भिन्न होते हुए भी सर्वथा भिन्न नही हैं वास्तविक अर्थकी दृष्टिसे एक ही हैं । विशेष व्याख्याके द्वारा इन सबके एकार्थको भले प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है। कुछ समानार्थक सज्ञा शब्द १. जीवशब्द सवाह्यार्थ. सज्ञात्वाद्धेतुशब्दवत् । -देवागमे, समन्तभद्रः २. सज्ञा-सख्या-विशेषाच्च स्वलक्षण-विशेषत । प्रयोजनादि-भेदाच्च तन्नानात्व न सर्वथा ॥ -देवागमे, समन्तभद्रः
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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