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________________ १३४ तत्त्वानुशासन 'ध्येयं स्याद्वीतरागस्य विश्ववत्यर्थसचयम् । तद्धर्मव्यत्ययाभावात्माध्यस्थ्यमधितिष्ठतः ॥ वीतरागो भवद्योगी यत्किचिदपि चिन्तयेत् । तदेव ध्यानमाम्नातमतोऽन्यद् ग्रन्थ-विस्तरः ॥ ज किचिवि चिततो निरीहवित्ती हवे जदा साहू । लद्धरण य एयत्तं तदा हु तस्स तं णिच्छ्यं भाणं ॥ इनसे प्रथम वाक्य (पद्य) मे यह बतलाया है कि विश्ववर्ती सारा पदार्थसमूह उस वीतराग-साधुके ध्यानका विषय है जो ध्येयके स्वरूपमे विपरीतताके अभावसे उसमे मध्यस्थताको धारण किये हुए है। दूसरेमे यह प्रतिपादित किया है कि योगी वीतराग होता हुआ जो कुछ भी चिन्तन करता है वह सब ध्यान है । इस सक्षिप्त कथन से भिन्न अन्य सव ग्रन्थका विस्तार है । और तीसरेमे यह दर्शाया है कि चाहे जिस पदार्थका चिन्तन करता हुआ साघु जब एकाग्र होकर निरीहवृत्ति ( वीतराग या मध्यस्थ ) हो जाता है तब उसके निश्चयध्यान बनता है । aratra के पर्यायनाम Y माध्यस्थ्यं समतोपेक्षा वैराग्यं साम्यमस्पृहा । वैतृष्ण्य प्रशम . ' शान्तिरित्येकार्थोऽभिधीयते ॥ १३६॥ ५ ६ माध्यस्थ्य ( मध्यस्थता ), समता, उपेक्षा, वैराग्य, साम्य, प्रस्पृहा ( निस्पृहता ), वैतृष्ण्य ( तृष्णाका अभाव), प्रशम और शान्ति ये सब एक हो अर्थको लिये हुए हैं ।' १२ ये दोनो पद्य ज्ञानार्णवके ३८ वें प्रकरणमे ११३ वें पद्य के अनन्तर 'उक्त च ' ' पुन उक्त च' रूपसे उद्धृत है । ३. यह द्रव्यसंग्रहका ५५ वा पद्य है । ४. म मस्पृह । ५ मु परम' ।
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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