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________________ ६८ तत्त्वानुशासन यहाँ प्रक्षिप्त हुआ जान पड़ता है। कौनसे मूलग्रन्थका प्रस्तुत पद्य अग है, यह बात बहुत ग्रन्थोका अवलोकन कर जाने पर भी अभी तक मालूम नहीं हो सकी। हाँ, अध्यात्मतरगिणीके ३६वे पद्यको गणधरकीर्तिकृत टीकामे यह पद्य कुछ पाठ-भेद तथा अशुद्धिके साथ निम्नप्रकारसे उद्धृत पाया जाता है - ज्ञानादर्थान्तर नात्मा तस्माज्ज्ञान न चापि (त्म) नः। एक पूर्वापरीभूत ज्ञानमात्मेति कथ्यते ।। गणधरकीतिकी यह टीका सवत् ११८६ चैत्र शुक्ला पचमीको बनकर समाप्त हुई है और इसलिये यह पद्य उससे पूर्वनिर्मित किसी ग्रन्थका पद्य है । हो सकता है कि वह ग्रन्थ स्वामी समन्तभद्र-कृत 'तत्त्वानुगासन' ही हो, क्योकि टीकामे इससे पूर्व जो पद्य उद्धृत है वह 'तदुक्तं समन्तभद्रस्वामिभि.' वाक्यके साथ दिया है और प्रस्तुत पद्यको 'तथा ज्ञानात्मनोरभेदोऽप्युक्त.' वाक्यके साथ दिया है, जिसमे प्रयुक्त 'अपि' शब्द स्वाम्युक्तत्वका सूचक है। ___ध्याताको ध्यान कहनेका हेतु ध्येयाऽर्थाऽऽलम्बन ध्यानं ध्यातुर्यस्मान्न भिद्यते । द्रव्याथिकनयात्तस्माद्ध्यातैव ध्यानमुच्यते ॥७०॥ 'द्रव्याथिक ( निश्चय ) नयकी दृष्टिसे ध्येय वस्तुके अवलम्बनरूप जो ध्यान है वह कि ध्यातासे भिन्न नहीं होताध्याता आत्माको छोडकर अन्य वस्तुका उसमे आलम्बन नहीइसलिये ध्याता ही ध्यान कहा गया है।' व्याख्या- यहाँ कर्त साधन-निरुक्तिकी दृष्टिसे' ध्याताको १. ' ध्यायतीति ध्यानमिति बहुलापेक्षया कर्तृ साधनश्च युज्यते।' (तत्त्वा० वा० ६-२७) 'ध्यातीति च कर्तृत्व वाच्य स्वातन्त्र्यस भवात्' (आर्प २१-१३)
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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