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________________ ध्यान-शास्त्र 'दृष्टप्रयोजनपरिवर्जनार्थमुत्तमविशेषणम् । तान्येवंभाव्यमानानि धर्मव्यपदेशभांजि । (सर्वार्थ० ६-६) इस तरह विवक्षावश धर्मके विविध रूपोकी दृष्टिसे ध्यान विविवरूपको धारण किये हुए भी धर्म्यध्यानके रूपमे स्थित होता है। धर्मके विविधरूपोंसे इसमे कोई वाधा नही आतो। जिस समय धर्मका जो रूप ध्यानमे स्थित हो उस समय उसी रूप धर्म्यध्यानको समझना चाहिए। इस विषयमे ज्ञानसारकी निम्न गाथा भी ध्यानमे लेने योग्य है - सुत्तत्थ-धम्म-मगण-वय-गुत्ती समिदि-भावरणाईरणं । जं कोरइ चितवणं धम्मज्झारणं तमिह भणियं ।। १६ ।। इसमे बतलाया है कि सूत्रार्थ अथवा शास्त्रवाक्योके अर्थों, धर्मों, मार्गणाओ, व्रतो, गुप्तियो, समितियो, भावनाओ आदिका जो चिन्तवन किया जाता है उस सबको धर्म्यध्यान कहा गया है। ध्यानका लक्षण और उसका फल एकाग्र-चिन्ता-रोधो य परिस्पन्देन वजितः । तद्ध्यानं' निर्जरा-हेतुः सवरस्य च कारणम् ॥५६॥ 'परिस्पन्दसे रहित जो एकान चिन्ताका निरोध है-एक अवलम्वनरूप विषयमे चिन्ताका स्थिर करना है-उसका नाम ध्यान है और वह (सचितकर्मोकी) निर्जरा तथा (नये कर्मास्रवके निरोधरूप) संवरका कारण है ।' ___ व्याख्या-नाना अर्थों-पदार्थोका अवलम्बन लेनेसे चिन्ता परिस्पन्दवती होती है-डांवाडोल रहती है अथवा स्थिर नही होपाती-उसे अन्य समस्त अनो-मुखोसे हटाकर एकमुखी करने. १ एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम् । (त० सू० ६-२७)
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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