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ध्यान-शास्त्र
५५ आत्मनः परिणामो यो मोह-क्षोभ-विवजितः। । स च धर्मोऽनपेतं यत्तस्माद्धय॑मित्यपि ॥५२॥ '(तथा) आत्माका जो परिणाम मोह और क्षोभसे विहीन . है वह धर्म है , उस धर्मसे युक्त जो ध्यान है वह भी घर्यध्यान कहा गया है।' __व्याख्या-यहां धर्मका वह स्वरूप दिया गया है जो मोह और क्षोभसे रहित आत्माका निज परिणाम है जिसे श्रीकुन्दकुन्दाचार्यने प्रवचनसारमे निर्दिष्ट किया है। इस धर्म-स्वरूपके चिन्तनरूप जो ध्यान है उसे भी धर्म्यध्यान समझना चाहिये।
शून्यीभवदिद विश्वं स्वरूपेण धृत यतः । तस्माद्वस्तस्वरूपं हि प्राहधर्म महर्षयः ॥५३॥ ततोऽनपेतं यज्ज्ञानं तद्धर्म्यध्यानमिष्यते । धर्मो हि वस्तुयाथात्म्यमित्याऽप्यभिधानतः॥५४॥ 'यह विश्व--दृश्यमान वस्तुसमूहरूप जगत-प्रतिक्षण पर्यायोंके विनाशरूप शून्यता अथवा अभावको प्राप्त होता हुआ चूंकि स्वरूपके द्वारा धृत है-पृथक्-पृथक् वस्तु-स्वभावके अस्तित्वको लिए हुए अवस्थित है-वस्तुके स्वरूपका कभी अभाव नहीं होता, इसलिये वस्तु-स्वरूपको ही महर्षियोने धर्म कहा है। उस वस्तु-स्वरूप धर्मसे युक्त जो ज्ञान है वह धर्म्यध्यान माना जाता है, आर्षमे-भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत महापुराणमे भी 'धर्मो हि वस्तुयाथात्म्यम्' (२१-१३३) ऐसा विधान पाया जाता है जो कि वस्तुके याथात्म्यको१ चारित्त खलु धम्मो धम्मो जो तो समो त्ति णिट्ठिो।
मोह क्खोह-विहीणो परिणामो अप्पणो हि समो ॥१-३७ २. मु मे यज्ज्ञात ।