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ध्यान-शास्त्र
विकलश्रुतज्ञानी भी धर्म्यध्यानका ध्याता। श्रुतेन विकलेनाऽपि ध्याता स्मान्मनसा स्थिरः । प्रबुद्धधीरधःश्रेण्योर्धय -ध्यानस्य सुश्रुतः ॥५०॥ 'विकल (अपूर्ण) श्रुतज्ञानके द्वारा भी घHध्यानका ध्याता वह साधक होता है जो कि मनसे स्थिर हो। (शेष) उपशमक और क्षपक दोनो श्रोणियोके नीचे धर्म्यध्यानका ध्याता प्रकर्षरूपसे विकसित-बुद्धिवाला होना शास्त्र-सम्मत है।'
व्याख्या-श्रेणियाँ दो हैं। उपशमक और क्षपक, जिनमे क्रमश मोहको उपशान्त तथा क्षीण किया जाता है । इन श्रेणियोंके नीचेके अथवा पूर्ववर्ती सात गुण-स्थानोमे धर्म्यध्यानका ध्याता प्रबुद्धबुद्धि (विशेष श्रुतज्ञानी) होता है, यह बात तो सुप्रसिद्ध हो है, परन्तु विकलश्रुतका धारी अल्प-ज्ञानी भी धर्म्यध्यानका ध्याता होता है, जो कि मनसे स्थिर हो। दूसरे शब्दोमे यो कहिये कि जिसने अपने मनको स्थिर करनेका दृढ अभ्यास कर लिया है वह अल्प-ज्ञानके बल पर भी धर्म्यध्यान की पूरी साधना कर सकता है । ऐसी साधना करनेवाले अनेक हुए हैं, जिनमे शिवभूतिका नाम खासतौरसे उल्लेखनीय है, जिन्हे 'तुषमासभिन्न' जैसे अल्पज्ञानके द्वारा सिद्धिकी प्राप्ति हुई थी। १ श्रुतेन विकलेनाऽपि स्याद् ध्याता मुनिसत्तम । प्रबुद्धधीरघ श्रेण्योर्घHध्यानस्य सुश्रुत (आर्ष २१-१०२) श्रुतेन विकलेनाऽपि स्वामी सूत्रे प्रकीर्तित । अघ श्रेण्या प्रवृत्तात्मा धर्म्यध्यानस्य सुश्रुतः ।।(ज्ञानार्णव २८-२७)। २. मु मे धर्म । ३ तुसमास घोसतो भावविसुद्धो महानुभावो य ।
णामेण य सिवभूई केवलणाणी फुड जाओ ।। ( भावपा० ५३ )